समाज निर्माण – नैतिकता या स्वार्थ
ऐसी गंदी सोंच पर, अबतक हूँ हैरान ।
कैसे अपनी कौल से, गिर जाता इंसान ।।
जाने कैसा स्वार्थ है, जाने कैसी सोंच ।
अपनों ने रिश्ते सभी, कैसे डाले नोच ।।
सच्चाई बौनी पड़ी, मर्यादा लाचार ।
कर्म धर्म विश्वास का, शुरू हुआ व्यापार ।।
जिनके हांथों सौंप दी, भारत की बुनियाद ।
वो खेतो में भर रहे, जहर सरीखी खाद ।।
आज दिल है आप सबसे कुछ बात हो जाये ……
मन बहुत दुखी है समाज के ऐसे स्वरूप को देखकर…हम जिनसे समाज को सुधारने की आशा करते हैं वहीं समाज को दूषित करने वालों का साथ देते हैं और समाज को बदलने की इच्छा रखने वालों का विरोध करते दीख पड़ते हैं ……विवश हूँ ऐसा लेख लिखने पर……
अपने विचार अवश्य रखें….शायद कहीं मेरा जवाब मिल जाए……..
गंदगी नालों में, गलियों में, सड़कों पर बहे तो उससे समाज पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता । किन्तु जब वहीं गंदगी मन्दिरों में, घरों में, अस्पतालों में, धर्मशालाओं में और शिक्षालयों में प्रवेश कर जाती है तो उससे समाज का गंदा होना स्वाभाविक है ।
आज ऐसी ही गंदी मानसिकता, कुत्सित विचारों व ओछी समझ रखने वाले लोग अक्सर गली चौराहों पर खड़े दीख जाते हैं । यद्यपि इससे अधिक फर्क समाज पर नहीं पड़ता । किन्तु जब ऐसे लोग सामाजिक संस्थानों, घरों, मन्दिरों, अस्पतालों या खासकर शिक्षालयों में घुस जाते हैं तो उससे समाज ही नहीं समाज की कई कई पीढ़ियाँ दूषित हो जाती हैं । क्यों कि इन लोगों का काम ही गंदगी फैलाना होता है । ये लोग इधर की गंदगी उठा कर उधर और उधर की गंदगी उठा कर इधर डालते हैं । ये इस क्रिया को राजनीति का नाम देते हैं ।
भाई हम तो लानत दें ऐसी राजनीति को । यहीं कारण है आज राधाक्रष्णन, विवेकानंद, शास्त्री जैसे महान विचारक नहीं दीख पड़ रहे । क्यों कि खुद को राजनीतिज्ञ समझने वाले कुछ कुत्सित पहले तो घर में फिर विद्यालय में और फिर समाज में बच्चे को मिलते रहते हैं ; फिर सम्रद्ध मानसिकता के वृक्ष बढ़े तो कैसे…..?????
अब मान लो कोई ऐसे वृक्ष रोपना भी चाहे तो भाई मिट्टी अब उतनी उपजाऊ थोड़े रही ….
उसे तो कीचड़ ने दलदल में मिला दिया है…
मान लो वह सफल भी हो गया संस्कारों के ऐसे पौधे रोपने में तो दो हाँथ कीचड़ के सैलाब का सामना कब तक करेंगे …?
पौधे का कीचड़ में मिल जाना लगभग तय है….
ऐसी परिस्थिति में कोई संस्कारों की पौध लगाये तो कैसे….?
हद तो तब हुई साहब….जब मैने वक़्त को चौराहे पर हर किसी को इस गंदगी में हाँथ धोने को मजबूर करते देखा…..।
और जिसने भी गंदगी में हाँथ धोना स्वीकार नहीं किया उसे हर बार वक़्त ने ठोकर दी…..
भाई कमाल है…क्या बिगड़ जाता धो लेते हाँथ..गंदगी में…अब कीचड़ में रहना है तो गंदगी से बचना क्या…..?
मैं पूछना चाहता हूँ समाज के ठेकेदारों से इंसान ईमानदारी और सच्चाई पर कैसे चले….जब आप ही उसे इन रास्तों पर चलने से रोंकते हो…?
— राहुल द्विवेदी ‘स्मित’