आखिर कब तक ?
गोधूली वेला में
क्षितिज पे फैली
वो रक्त रंजित लालिमा
अस्फुट शब्दों में चीत्कार करती
बार बार अश्रु भरी आँखों से
मुझे ताकती रही
और मैं ढूंढ़ती रही वो मकान
उसके पीछे पीपल का वो बुजुर्गाना छाँव
जिसके पत्तों से सूर्य की किरणें
छन छन कर सहला जाती
वक्त का एहसास
हर पल करा जाती
अब ना वो घर रहा
ना वो प्यार भरी छाँव
रह गयी एक ठूँठ
खुद को निर्दोष और निर्बल साबित करने की
नाकाम कोशिश
रह गए वंहाँ कुछ खजुलाये कुत्ते
सूखी हड्डियों के ताजा रक्त चूसते हुए
व् पुराने टूटे कुएं से
उठती वो सड़ी मानवी गन्ध
जिसके ऊपर हजारों गिद्धों का
एक साथ उड़ना
एहसास करा जाती के
जिसके जल से शुरू होता था
गाँव का जीवन
आज उसी में हो गया है ख़त्म
रह गयी है एक दहशत
एक इन्तजार
कब तक गाँव का गाँव उजड़ता रहेगा
शहर का शहर वीराने की चादर ओढे
निशब्द आसुंओं से
खुद को भिगोता रहेगा
कब तक
आखिर कब तक ???
— महिमा श्री