कविता : गुज़रा साल कुछ ऐसे आया
गुज़रा साल कुछ ऐसे आया
जैसे सोच की कड़ी
बीच से टूट गई हो
जैसे समझने की शक्ति
खत्म होती जा रही हो
एक चुभन सी हो गई हो
आस्था की आँखों में
नींद के हाथों से कोई खूबसूरत
सपना टूट गया हो….
गुज़रा साल कुछ ऐसे ही आया
जैसे दिल के किसी कोने में
कोई नश्तर चुभ गया हो
जैसे विश्वास के पन्नो पर
स्याही बिखर गई हो
जैसे समय के होठों से
साँसे निकल गई हो
और मेरी चीख होठों से हीं नहीं
आँखों से भी निकली हो
गुज़रा साल कुछ ऐसा ही आया
जैसे मेरे बचपन की सहेली ने
भीड़ में मुझे अकेला छोड़ दिया हो
जैसे घर के संस्कारों की कड़ी
अचानक हीं टूट गई हो
इतिहास के नगीनों से
कोई अनमोल नगीना खो गया हो
और शमशान की जमीं भी
दर्द से फट पड़ी हो….
हाँ…गुज़रा साल कुछ ऐसा ही आया!!
— रश्मि अभय
वाह !
धन्यवाद।