’नारी की व्यथा’
नारी जग की जननी है, संसार नया रच देती है।
चुप रहती कुछ न कहती है, दर्दो को हरदम सहती है।।
परिवार सम्हाले बच्चो का, खुद भूखी रह जाती है।
इंसाफ नहीं मिलता उसको, हर युग मे सतायी जाती है।।
सीता ने भी जुल्म सहे, मर्यादा को आँच न आने दी।
अग्नि परीक्षा देकर खुद, श्रीराम की लाज बचाती है।।
फिर भी दुनिया की बातों से, वन को भेजी जाती है।
क्या मर्यादा पुरूपोत्तम की, यह मर्यादा कहलाती है।।
सती प्रथा का जुल्म सहा, अब दहेज का सहती है।
कभी जहर खुद पीती है, कभी जलायी जाती है।।
वर्तमान की नारी भी, सहमी सहमी सी दिखती है।
खुलकर जीना चाहे तो, शिकार हवस का बनती है।।
मीरा ने भी जहर पिया था, अपना धर्म बचाने को।
त्याग बड़ा है नारी का, नारी की व्यथा निराली है।।
माँ-बेटी की गाली भी, नारी को ही दी जाती है।
दो-दो कुल की लाज रखे, दुनिया की रीति निभाती है।।
दुनिया भी हिल जाती है, ये धरती भी फट जाती है।
इंसाफ के खातिर नारी, जब भी कोहराम मचाती है।।
दुर्गा काली बनकर तू ही, दुनिया के जुल्म मिटाती है,
मिट जायेगी दुनिया ही, दुनिया जो तुझे मिटाती है।।
— बी.के. गुप्ता ‘हिन्द’