ग़ज़ल
बहर/ 1222 1222 1222 1222
नहीं समझी अगर तू तो क्या हक लिखने लिखाने का!
अगर साजन न देखे तो क्या मकसद है सजाने का!
तेरी मदहोशियों का पल स़दा लिखता हूँ कविता में!
जिन्हें तुम भूल बैठी हो बहाना क्या पढाने का।
हमारे प्यार के वो पल बहुत ही याद आते हैं।
जरा फिर रूठ जाओ तुम मिले मौका मनाने का।
किसी ने प्यार से तोड़ा किसी ने वार से तोड़ा
बहाना ढूंढ़ते हैं सब यहाँ दिल को जलाने का!
अरे पगली कभी तेरे गले की हार थी बाहें!
अभी तुम ढूँढती रस्ता महज दूरी बढ़ाने का।
जो तुझसे दूर जायेगा कहाँ जी पायेगा “चाहर”!
कफन को ओढ़कर अंतिम सन्देशा है ये आने का!
— शिव चाहर “मयंक”
आगरा