कविता : वेदना के स्वर तितली के संग
काश
मैं तितली होती
उडती मदमस्त फिजाओं में
इन्द्रधनुषी रंगों में रंगकर
रंगती सारे सपनो को
सपने जो बुनती थी मै
अरमानो का पंख लिए
बहुत दूर उडती थी मै
देख कहा करते थे बाबा
नाम करेगी रोशन तू
आसमानों पर उड़ने वाली
तारों सा चमकेगी तू
चमक रही हूँ अब भी मै
बन सुर्खियाँ अखबारों की
पंख नोच लिए वहशियों ने
पड़ी हुई लाचारों सी
तड़प रही हूँ सिसक रही हूँ
रंग सारे बिखर गए
बिखर गया हर सपना मेरा
सर शर्म से झुक गए
सूनी आँखों से बाबा
देख रहे टूटे तारे
अब तितली जैसी कहाँ बेटियाँ
पंख तो सारे क़तर गए
काश मै तितली होती
उड़ जाती आसमानों में
वहशी इतना उड़ नहीं सकते
ढूंढ ना पाते वो मुझको
छुप जाती फूलों के रंग में
पर फूल तो सारे मसल गए
सोच नहीं जब तक बदलेगी
तितली तब तक उड़ ना सकेगी
आसमान पर उड़ने वाली
धरती पर भी रह न सकेगी
………..डॉ शिप्रा शिल्पी [कोलोन जर्मनी ]