पेट की रोटी के लिए पैरों की बेड़ी तोड़ो
यहाँ मैं आप सबकी दुखती रगों पर हाथ रखने के लिए माफ़ी चाहूँगा किन्तु इरादे नेक हैं: सबको बंधनमुक्त जीवन-निर्वाह की दिशा दिखलाना ताकि रोज़गार के लिए किसी को निजी अथवा सरकारी तंत्र पर निर्भर रहने की मजबूरी अब न रह पाये, यथार्थ में ‘स्व’तन्त्र हो जायें, अर्थात् तन्त्र-निर्भर न होकर वास्तव में आत्मनिर्भर हो सकें:-
आइए! पहले परिभाषाएँ समझ लैवें:-
नौकरी: सरकारी अथवा निजी संस्थानों के लिए लगभग दैनिक आवागमन करते हुए मासिक वेतन पर कुछ करना;
स्वरोजगार: किसी तंत्र की दास्ताँ न स्वीकारते हुए स्वयं का रोजगार जैसे कि व्यापार, व्यवसाय अथवा घर से किया जा सकने वाले अनुवाद जैसे स्वच्छन्द कार्य (फ्रीलेंसिंग)
नौकरी एवं स्वरोजगार में अंतर–
1- स्वावलम्बी बनाम बंधुआ : हर प्रकार की नौकरी-चाकरी में व्यक्ति वस्तुतः बंधुआ मजदूर ही होता है; समय, स्थान इत्यादि के बंधन लाद दिये जाते हैं, “दूर के ढोल सुहावने” के कारण लोग निजी संगठनों अथवा सरकार की चाकरी करते हैं फिर आजीवन तंत्र, अधीनस्थों व उच्चस्थों की करनी भुगत के यह कहावत प्रमाणित कर डालते हैं: “करे कोई, भरे कोई”; किसी अनाश्रित की भाँति पराये लोगों, पराये परिवेश में परजीवी बनकर निराश्रित, अनाथ अथवा बेसहारा वृद्ध जैसा जीवन क्यों बिताना? स्वाधीन न रहकर अपना यौवन व जीवन सरकार की चाकरी में क्यों
2- इच्छा बनाम इच्छा : व्यक्ति अपनी स्वयं की क्षमताओं व इच्छाओं को मारकर दूसरों के स्वार्थ पूरे करने में अपना जीवन नौकरी में झोंक देता है जबकि फ्रीलांसिंग में व्यक्ति अपनी अभिरुचि की दिशा में आगे बढ़ता है. नौकरियों में व्यक्ति अनैच्छिक काम करता है, अनिच्छित समय पर, अनिच्छित स्थान पर, अर्थात सब अपनी इच्छाओं, अपनी आवश्यकताओं के विपरीत सरकारी अथवा अन्य तंत्र की इच्छाओं के अनुरूप
3- आनंद बनाम आडम्बर : स्वरोजगार में व्यक्ति अपने मन की करता है इसलिए तुलनात्मक रूप से अधिक सुखी रहता है जबकि नौकरी में दूसरे की चाहतें पूरी करने में अपना दिन खराब करता है(अपनी रातें भी); दिखावे को चाहे बॉस आग्रह जैसी बात कर रहा हो किसे नहीं पता कि वह तानाशाही ऑर्डर दे रहा है. अधीस्थ उच्चस्थ के सामने सलाम ठोकता है कौन नहीं जानता कि वह ऐसा प्रशासनिक अथवा सामाजिक मजबूरी समझकर कर रहा है, जबकि स्वरोजगार में ये दोनों प्रवाह वास्तविक होते हैं, न कि आडम्बर
4- स्वतंत्रता बनाम पराधीनता : नौकरी किसी न किसी प्रणाली की चाकरी होती है, विशेषतया सरकारी से भी अधिक बंधनकारी निजी नौकरी होती है किन्तु स्वरोजगार काफ़ी मुक्त होता है, विशेषतया फ्रीलेंसिंग सर्वाधिक स्वतन्त्र होती है: मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक समस्त रूपों में. कुछ समय नौकरी-चाकरी कर चुके लोग भुक्त-भोगी हैं कि माता की बीमारी मालूम होने पर भी सरकारी/निजी प्रणाली अपेक्षा करती है कि व्यक्ति उससे औपचारिक रूप से विधिवत अनुमति माँगे व नौकरशाही से गुजारकर अनुमति मिलने की प्रतीक्षा करे: “मेरी माता बीमार हो गयीं हैं, क्या मैं उनके पास जाऊँ?” आप समझ ही गये होंगे कि व्यक्ति चाहे किसी का कर्मचारी हो अथवा सांसद होता तो किसी तंत्र का बंधुआ मजदूर ही है- “पराधीनता सपनेहुँ सुख नाहीं”
5- सरलता बनाम जटिलता : नौकरियों में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं व साक्षात्कार से होकर जबरन गुजारा जाता है किन्तु स्वरोजगार में इसे कोई जटिलता आड़े नहीं आती, बस अपनी चाहत की आहट को अनुभव करो और राहत
6- स्थायित्व बनाम अस्थायित्व : नौकरी, विशेषतया सरकारी नौकरी को भविष्य की आर्थिक सुरक्षा व स्थायित्व से जोड़कर देखे जाने की आदत है परन्तु सत्य को स्वीकारें कि स्थायित्व परिस्थिति में नहीं व्यक्ति की मनःस्थिति में ही हो सकता है, सरकारी अधिकारी पर तो कोई भी कभी भी आरोपण कर देता है, ऑफ़िस-पॉलिटिक्स, निलंबन, चिड़चिड़ेपन, सहकर्मियों से वैमनस्य, बॉस से न बनना इत्यादि कारकों के कारण पूरा जीवन विभिन्न झंझावातों से जूझने में ही कब निकल जाता है बुढ़ापे में जाकर पता चलता है जब सामाजिक भीख जैसे पेंशन पहुँचायी जाती है जबकि फ्रीलेंसिंग में उपरोक्त झंझटों से जूझना नहीं पड़ता व सेवानिवृति जैसी कोई मजबूरी भी नहीं होती, व्यक्ति जब तक चाहे अपनी उपयोगिता बनाये रख सकता है तथा सरकार के पैसों पर निःशक्त जैसे पलने की विवशता भी नहीं होती
7- असली बनाम आभासी सम्मान : प्राइवेट व सरकारी व्यक्तियों से जुड़ने वाले लोग उनकी बाहरी छवि से जुड़े होते हैं जबकि आंतरिक सम्मान अथवा भीतरी मान-प्रतिष्ठा जैसे कुछ नहीं होता जबकि फ्रीलेंसिंग में आपकी गुणवत्ता रूपी सुगंध की कारण लोग आपके प्रति आदर भाव रखते हैं; विभिन्न पदाधिकारियों का आकर्षण उसके पद से जुड़ा होता है जिस से निकलते ही वे दूध में पड़ी मक्खी की भाँति मन से निकाल बाहर फेंक दिए जाते हैं, वैसे सरकारी अधिकारी अपनी करनी से कितने बदनाम रहते हैं मैंने बताना शुरु कर दिया तो अलग से कुछ किताबें लिखनी पड़ जायेंगी जबकि बिना मिलावट का मान, बिना बनावट का सम्मान उन्हीं स्वरोजगारियों को नसीब होता है जिनकी साख का सदाबहार सच्चा स्नेह दूर-दूर तक के जन-समुदाय के दिलों को सींचता रहता है, लोग व्यक्ति के पद अथवा अपनी बाध्यता से नहीं बल्कि स्वेच्छा से मिलते व जुड़ते हैं
8- अपना बनाम पराया अधिकार : नौकरी चाहे जिस भी प्रकार की हो दिन के उजाले का लगभग पूरा भाग दूसरे की अधीनता में ही बीत जाता है, स्वयं के जीवन, स्वयं की दिनचर्या तक में अपना अधिकार नहीं होता, थक-हारकर घर लौटे पुरुष को ऐसा लगता है मानो बस जैसे-तैसे रात गुजारने किसी बस्ती अथवा धरमशाला में आया हो, वैसे भी जब मन-मस्तिष्क में बाहरी तंत्र की उठापटक हावी हो तो शरीर से साथ रहकर भी अपनों व साथियों का साथ अनुभव कहाँ होता है?
9- कर्मठता बनाम आलस्य : सरकार में जाते ही व्यक्ति अहंकार से भर जाता है इसलिए जनता के कामों में वह रुचि रखनी बंद कर देता है. अनुशासनहीन व लापरवाह एवं अनियमित अधिकारियों के बारे में किसने न सुना होगा जबकि फ्रीलेंसिंग में व्यक्ति को पता होता है कि जब तक यह पुरुषार्थ करता रहेगा इसकी माँग बनी रहेगी
10- नज़दीकी बनाम दूरी : कई नौकरियों में लोग अपना घर-बार छोड़ बाहर जाकर किसी अन्य स्थान पर शरणार्थी-सा जीवन बिताने को मजबूर रहते हैं, अरे! अपनों के भरण-पोषण के नाम पर उन्हीं से दूर अपनी जवानी की कुर्बानी करके कब किसे कौन-सा सुख मिला है? अपनी भीतरी अभिरुचियों व योग्यताओं को पहचानें एवं यथार्थ में परिजनों के साथ आजीवन व पूर्णतया साथ रहकर खुशहाल जीवन जियें, न भूलें कि आप अमृत पीकर नहीं आये हैं तो फिर मुक्ति के लिए अगले साल या महीने का इंतज़ार क्यों? क्या माता ने आपको अपने कलेजे से दूर करने के लिए ही पैदा किया था? क्या अपनी ब्याहता को अपने से दूर रखने के लिए ही आपने ब्याह किया है?
11- अस्तित्व बनाम आभासी सत्ता : नौकर आखिर नौकर ही होता है जिसका वजूद उसके मालिक व तंत्र के नीचे ही होता है, इस प्रकार असल जीवन में उसका अपना कोई अलग वजूद होता ही नहीं, वह तो सत्तावानों व पूँजीपतियों की कठपुतली अथवा नेताओं का एक नुमाइन्दा मात्र होता है जो स्वयं तंत्र के गुलाम हैं. तंत्र से जुड़ाव ही उसकी पहचान है, अर्थात आभासी सत्ता में सिमटा एक अस्तित्वहीन पुतला होता है, अपना वजूद न होने के बावजूद लोग तथाकथित सोश्यल स्टैट्स अथवा सोकॉल्ड धाक के लिए किसी-न-किसी सिस्टम की बन्धुआगिरी में लिप्त रहते हैं जबकि फ्रीलेंसिंग में व्यक्ति स्वयं नियमों का निर्धारक होता है, स्वयं अपनी नियति का निर्माता होता है; हर बंधुआ परतंत्र होता है जबकि स्वरोजगारी स्वतंत्र रहता है
12- जीवित बनाम यांत्रिक : नौकरी (बंधुआ मजदूरी) में व्यक्ति का मानो बस एक काम रह जाता है: सोके जैसे ही उठा माता/बहन/पत्नी/बहू/बेटी ने टिफ़िन व पेटी बाँध के आटे की कट्टी जैसे गाड़ी में लादा तथा शाम को उस डिस्चार्च्ड बंधुआ को घर पर वापस डिस्पेच करके बिस्तर तक ले जाया गया; कहाँ है जीवन? कहाँ बचे उत्सव?? कहाँ गयी अब भी अपने शेष जीवन अथवा अपनी बाकी की जवानी को अब तक व्यतीत अधिकाँश जीवन जैसे बेजान बितायेंगे अथवा स्वरोजगारी हो पूरी तरह से घर लौट आयेंगे?
अंधविश्वास: स्वरोजगार में पूँजी, पहुँच, समय व अनुभव आवश्यक!
वास्तविकता: कौन बोला कि लाखों का व्यवसाय-व्यापार करो अथवा वस्तुओं का स्टॉक रखो? यदि आप किसी से किसी भाषा में अनुवाद कर सकते हों तो इन्टरनेट पर सर्च करें- दुनिया भर के बहुत सारे व्यक्ति व संगठन मिल जायेंगे जिन्हें अच्छे अनूद्कों की आवश्यकता बहुत बनी ही रहती है; यदि आप गायन अथवा चित्रकला की शुरुआती अवस्था में हों तो भी १५-२० गानों व चित्रों को तैयार कर यूट्यूब में अपलोड करें, ब्लॉग बनाकर जानने-पहचानने वालों व नेट से सर्च कर उस विषय के ग्राहक-वर्ग व अन्य अपरिचितों को फोन से लिंक भेजें; विभिन्न वेबसाइट्स में मेल करें- कुछ अच्छा करने की इच्छा आपमें हो एवं आप उसे ढंग से सार्वजनिक रूप में प्रस्तुत करें तो चाहने वाले हज़ार मिल जायेंगे; वैसे भी आजकल तो खुदरा व थोक व्यापारी भी सामग्री को भण्डार में रखनी बंद करने लगे हैं, फोन व ईमेल से ऑर्डर मिलने के बाद ही सामग्री की व्यवस्था करके भिजवा देते हैं, अर्थात नो नुकसान: सिर्फ़ फायदा; वैसे बिना पूँजी अथवा २००० रुपयों से भी कम पूँजी में किये जाने वाले व्यवसाय/व्यापार व फ्रीलेंसिंग के और भी कई उदाहरण हैं, जैसे कि विषय-आधारित पेड़ों की नर्सरी, किसी को करना हो तो फिर कभी बताऊँगा.
— प्रशांत वर्मा