गजल
दिखी जमीन अपनी, पहाड़ों पर चढ़कर
जिसपर चलता रहा, रोज खूब अकड़कर
आकाश नजदिक था, जो धुंआ धुंआ दिखा
कुठरता सहम गई, न जाने क्योे डरकर ।।
उखड़ने लगी साँस, काँपने लगे पाँव
रुँध गई आवाज, सर्द हवा बिछाकर ।।
सुखने लगे होष्ठ, अनजान पगडंडियां
मन मचला ले चलू, यहाँ से उतारकर ।।
देखे तो आधार, शायद आए नजर
जड़ था दिखने लगा, बेदर्द घांव देकर ।।
अकड़ में पड़ा रहा, लगा जमीन मिल गइ
गिरा पड़ा हुआ था, टुकड़े में लुढ़ककर ।।
तरांशू भी कैसे, किस रूप को बनाऊँ
बेजान बदसूरत, खुद अकड़ में गिरकर ।।
चकनाचूर हो गया, गुबार है उसका
खँडहर हुआ महल, घूरता बिगाड़कर ।।
— महातम मिश्र