तंत्र के गणों का कर्त्तव्य
“”गर्व से बोलो,मैं भारतवासी हूँ। प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है। भारतवासी मेरे प्राण हैं। भारत के देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला है। मेरी जवानी की फुलवारी, मेरा पवित्र स्वर्ग है और मेरे बुढ़ापे की काशी है।…………भारत की मिट्टी मेरा सर्वोच्च स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है।””
स्वामी विवेकानंद के इन पंक्तियों में एक सन्देश है, गूढ़ सन्देश। जिसे हम सब आत्मसात नहीं कर पाते हैं।
वर्तमान समय में कोई भारत में व्याप्त असहिष्णुता से आहत है, तो कोई दलितों-निम्नवर्गीयों की उपेक्षा से।
कोई देश के ‘मंथर’ विकास से चिंतित है, तो कोई मातृभाषा हिंदी को अंग्रेजी के ‘पद-तल लुंठित’ देखकर शोकाकुल है।
मगर,
ये मनोदशाएं उनकी अपनी व्यथा नहीं है, बल्कि ये पीड़ा पूर्णतः राजनीति से प्रेरित है। पहले सत्ता जनसेवा का माध्यम हुआ करता था, अब ‘स्वयं-सेवा’ का सुखद आसन है।
यह सर्वविदित है कि हमारे देश की शासन व्यवस्था दशकों पहले राजतंत्रात्मक से जनतंत्रात्मक हो चुकी है।
अर्थात, प्रत्यक्ष रूप से भले ही राष्ट्र किसी एक विशिष्ट व्यक्ति द्वारा चलाया जा रहा हो,
परंतु, शासन की बागडोर हमारे ही हाथों में है।
हमारे पास ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘सूचना का अधिकार’ जैसे अमोघ शस्त्र हैं।
हमारे विवेक और सहयोग से यह तंत्र संचालित होता है।
सरकार जो भी, जैसे भी करती है उसपर सजग दृष्टि रखते हुए हमें उसे अपना कार्य स्वेच्छापूर्वक करने देना चाहिए।
पर तंत्र के गण होने के नाते हम अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना न भूलें,बस।
पूरे देश को न सही, अपने गाँव,मोहल्ले, शहर से शुरुवात कीजिये। इसे “स्वच्छ” बनाइये, केवल शारीरिक रूप से नहीं, मानसिक रूप से भी। नई पीढ़ी भौतिकता को प्राथमिकता दे रही है, अध्यात्म पाखंडों के बीच दुबका-सा उपेक्षित होता जा रहा है। स्मरण रहे, सनातन धर्म का आधार अध्यात्म ही है, और अध्यात्म के ही अलग-अलग रूप सभी धर्म-शास्त्रों में वर्णित हैं।
इस 67वें गणतंत्र-दिवस पर,
अपनी संस्कृति को हास्यास्पद कहने की बजाय इस पर गर्व करना सीखना होगा हमें।
हमारे राष्ट्र का इतिहास प्रारम्भ से ही गौरवशाली रहा है, वर्त्तमान में हम यह बीड़ा उठाएं, हम कुछ ऐसा करें जिससे हमारा देश गौरवान्वित हो, विश्वपटल पर प्रतिष्ठित हो,प्रकाशमान हो।
और ये कार्य हम ही कर सकते हैं।
हम, तंत्र के गण।।
!!जय हिन्द!!
..भारत माता की जय..
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© जयनित
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