मनुष्य और अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म का कारण
ओ३म्
यदि हम अतीत की बातें छोड़कर वर्तमान संसार में विद्यमान मनुष्यादि अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म पर विचार करें तो हम देखते हैं कि सभी प्राणियों में जन्म व मृत्यु का सिद्धान्त काम कर रहा है। हमसे पहले व बाद में जन्में अनेक मनुष्य और अन्य प्राणियों को हमने समय समय पर मरते हुए देखा है। सृष्टि की आदि से वर्तमान समय तक अनेक प्राणी योनियों में अनन्त संख्या में प्राणियों के जन्म हुए हैं, सब अपना जीवन काल पूरा करते हैं और उसके बाद सभी प्राणियों की मृत्यु हो जाती है। इससे यह सिद्धान्त बना है कि जन्म लेने वाले सभी प्राणियों की कुछ समय व वर्षों के बाद मृत्यु अवश्यमेव होती है। वेद, शास्त्र और कर्म-फल विज्ञान के विशिष्ट ज्ञाता हमारे ऋषियों ने यह सिद्धान्त दिया है कि मनुष्य व अन्य प्राणियों के अपने किसी जन्म में मृत्यु से पूर्व तक किये गये शुभाशुभ कर्मों, जिनका फल भोगा नहीं गया हो, उनको भोगने के लिए नाना योनियों में जीवात्माओं के जन्म होते हैं। इस कारण से भिन्न जन्म का अन्य कोई कारण नहीं हो सकता। जो लोग इस सिद्धान्त को नहीं मानते उन्हें विचार करना चाहिये कि इस संसार में हमें सर्वत्र नियम देखने को मिलते हैं। ऋतु परिवर्तन नियमों के अनुसार होता है, ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड गतिशील हंै जो कि विज्ञान के नियमों के अनुसार हो रहा है। इन नियमों का आधार व आदि कारण ईश्वर व परमात्मा है। अति सूक्ष्म एक परमाणु तक में भी विज्ञान के नियमों के अनुसार गति व क्रियायें होती हैं तो फिर मनुष्य का जन्म व मरण का कारण भी अवश्य ही किसी सिद्धान्त व नियम पर आधारित है, यह ज्ञात होता है। ऋषियों ने अपनी साधना व गहन चिन्तन से कर्म-फल सिद्धान्तों पर विचार किया और वेद व अन्य ऋषियों के बनाये शास्त्रों के आधार पर यह निश्चित किया है कि किसी भी मनुष्य व प्राणी के पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्म ही इस मनुष्यादि जन्म के कारण हैं। यह सिद्धान्त पूर्ण युक्तिसंगत एवं ज्ञान-तर्क-विज्ञान से युक्त व पोषित है। इसमें अन्धविश्वास व अज्ञान जैसी कोई बात नहीं है। जिनको यह सिद्धान्त समझ में नहीं आता व जो इसे नहीं मानते उन्हें इस सिद्धान्त का अधिक अध्ययन, विचार व चिन्तन करने की आवश्यकता है।
मनुष्य व सभी प्राणियों के जन्म में जीवात्मा, ईश्वर सहित प्रकृति की भी भूमिका है। ईश्वर हमें जन्म देने वाली सत्ता का नाम है। जिस प्रकार माता-पिता मनुष्य आदि के जन्म में अपनी भूमिका निभाते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी मृत्यु के पश्चात जीवात्मा को उसके कर्मानुसार माता-पिता का चयन कर उनसे जीवात्मा के जन्म की प्रक्रिया पूरी कराता है। यदि परमात्मा यह कार्य न करे तो कोई भी जीवात्मा जन्म न ले सके। जीवात्मा तो जन्म की इस पूरी प्रक्रिया में घटने वाली घटनाओं व क्रियाओं से पूरी तरह अपरिचित व अनभिज्ञ रहता है। ईश्वर अपने विधान के अनुसार जीवात्मा को एक शरीर से निकाल कर उसके भावी माता-पिता के शरीर में प्रविष्ट कराता व उनसे उसे जन्म दिलाता है। जन्म होने के बाद से जीवात्मा का शरीर वृद्धि को प्राप्त होता है और माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों से ज्ञान अर्जित कर वह जीवात्मा वा मनुष्य शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त रहकर अपने पूर्वजन्म के अवशिष्ट कर्म=प्रारब्ध को सुख व दुःख के रुप में भोगता है। लगभग ऐसी ही स्थिति मनुष्येतर सभी प्राणियों के साथ होती है। इससे यह निश्चित है कि मनुष्य योनि में जीवात्मा के कर्म ही उसके भावी जन्म की नींव का कार्य करते हैं और उनके भोग व नवीन कर्मों से भावी जन्म के लिए आधार बनता है।
मनुष्य के जन्म व मृत्यु का कारण जान लेने पर ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप को भी जानना चाहिये। ईश्वर के बारे में सारे संसार में नाना प्रकार की अज्ञानजनित भ्रान्तियां हैं। इन भ्रान्तियों के कारण मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य के यथार्थ ज्ञान से भी दूर अर्थात् भटकाव की स्थिति में रहता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरुप का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने कर्तव्य व अकर्तव्यों को जानकर अपने जीवन के उद्देश्य को भी समझ सकता है जिससे वह उद्देश्य के अनुरुप कर्मों को करते हुए सुखों का भोग करे और मृत्यु के पश्चात उसको उसका प्रमुख उद्देश्य वा लक्ष्य ‘मोक्ष’ प्राप्त हो जाये। प्रथम ईश्वर के स्वरुप पर विचार कर लेते हैं। ईश्वर मुख्यतः इस सृष्टि की रचना करने, इसका पालन करने और अवधि पूरी होने पर इस सृष्टि की प्रलय करने वाली एकमात्र सत्ता है। सभी जीवात्माओं को जन्म देना भी ईश्वर के ही अधीन है। इसके स्वरुप पर विचार करें तो यह सच्चिदानन्दस्वरूप सिद्ध होती है। यह सत्य अर्थात् सत्तात्मक है, यह तो इस सृष्टि की उत्पत्ति व व्यवस्था से ही सिद्ध है। चेतन होना इसलिए अनिवार्य है कि बिना चेतन तत्व व सत्ता के कोई बुद्धिपूर्ण रचना अस्तित्व में नहीं आती है। संसार में हम अनेक बुद्धिपूर्वक बनाये हुए पदार्थों को देखते हैं। किसी निर्मित पदार्थ को देखकर हमें यह अनुमान नहीं होता कि यह किसी बुद्धियुक्त सत्ता द्वारा बिना विचार किये बनाये जा सकते हैं। हां, यह बात भी है कि कई बार बनाने वाला प्रत्यक्ष होता है और कई बार अप्रत्यक्ष वा दूर। अप्रत्यक्ष निमित्त कारण अर्थात् पदार्थों का निर्माता दो प्रकार का हो सकता है। एक कारण निर्माता की हमसे दूरी हो सकती है जिससे वह हमें दिखाई न दे। रचित पदार्थ का दूसरा कारण ऐसी रचनायें हो सकती हैं जो मनुष्यों व मनुष्यों के समूह से बन ही न सकें। इस श्रेणी में सूर्य, चन्द्र, ब्रह्माण्ड, अग्नि, जल, वायु आदि नाना पदार्थ आते हैं। इन्हें मनुष्यों द्वारा नहीं बनाया जा सकता परन्तु इन्हें भी बनाता कोई अवश्य है क्योंकि इनकी रचना में बुद्धि अर्थात् विचार शक्ति व ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग दिखाई देता है। ऐसे सभी पदार्थ अपौरूषेय अर्थात् मनुष्यों से इतर अप्रत्यक्ष व अदृश्य ईश्वरीय सत्ता के द्वारा बनाये गये सिद्ध होते हैं। इससे अपौरूषेय सत्ता का चेतन स्वरूपवाला होना सिद्ध होता है। ईश्वर आनन्दस्वरूप है, वह इस कारण से है कि सुख व आनन्द रहित सत्ता कोई छोटा सा भी पदार्थ नहीं बना सकती। इसके लिए उसका दुःख रहित, सुखी व आनन्दित होना आवश्यक है। अतः ईश्वर की तीन विशेषतायें विदित हैं, उसका सत्य, चेतन व आनन्द से युक्त होना। उसके अन्य गुणों में उसका निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता होना और जीवात्माओं को कर्मानुसार जन्म-मृत्यु प्राप्त कराकर सुख व दुःख उपलब्ध कराना है। यह संक्षिप्त स्वरुप ईश्वर का वेद, शास्त्र, ज्ञान, विचार व चिन्तन से सिद्ध व प्राप्त होता है।
जीवात्मा के स्वरुप पर भी संक्षेप में विचार करते हैं। जीवात्मा भी सत्य, चित्त, आनन्द व सुख से रहित, इस सुख वा आनन्द के लिए अन्यान्य प्राकृतिक पदार्थों व ईश्वर के सान्निध्य का आश्रय लेने वाला, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, आकाररहित, कर्मानुसार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होने व भिन्न-भिन्न प्राणी योनियों में जन्म लेने वाला और इसके साथ ही वेद, शास्त्रों व विद्वान आचार्यों की संगति से ज्ञान प्राप्त कर, योग-ध्यान आदि साधना से ईश्वर का साक्षात्कार कर दुःखों व जन्म-मरण से छूटकर आनन्द को प्राप्त होने वाली सत्ता, पदार्थ व तत्व है। इसका अनुभव हम अपने स्वरुप में स्थित होकर अर्थात् स्व-अस्तित्व का चिन्तन कर प्रत्यक्ष जान सकते हैं।
हम अपनी आंखों से संसार व सृष्टि को देखते हैं। यह सृष्टि परमाणुओं से बनी है। यह परमाणु भी सत्व, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति के विकार हैं। मूल प्रकृति अनादि व नित्य है तथा परिमाण में मनुष्यों की दृष्टि में अनन्त परिमाण वाली है। इन्हीं को परमाणुरूप देकर ईश्वर ने इस जगत को बनाया है। सृष्टि यज्ञ का कर्ता ईश्वर है। इसका सम्पूर्ण विज्ञान उसी को विदित है जिस प्रकार किसी वैज्ञानिक खोज का ज्ञान उसके अन्वेषक को ही होता है। अन्य सामान्यजन तो उसका भोग व उपयोग ही करते हैं परन्तु उसके निर्माण की विधि व प्रयुक्त पदार्थों के गुणों का ज्ञान व बनाने की क्रिया को वह वैज्ञानिक व बुद्धिमान पुरुष ही मुख्यतः जानता है। इस विषय से संबंधित महर्षि दयानन्द के विचार प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों ‘अज’ अर्थात् जिन का जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। उस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फसता है और उस में परमात्मा न फसता और न उस का भोग करता है। प्रकृति का लक्षण है, शुद्ध, मध्य, जाड्य अर्थात् जड़ता, तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है, उस का नाम प्रकृति है। उससे महत्तत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा, पांच सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत, ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इनमें से प्रकृति अविकारिणी, और महत्तत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत, इन्द्रियां, मन तथा स्थूल भूत, प्रकृति का कार्य और प्रकृति इनका कारण है। पुरुष न किसी की प्रकृति, उपादान कारण और न किसी का कार्य है। इस विषय में रूचि रखने व अधिक जानने के लिए पाठकों को सत्यार्थप्रकाश, सांख्य व वैशेषिक दर्शन तथा वेद व उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिये।
इस लेख से यह निष्कर्ष विदित होता है कि मनुष्य व सभी प्राणियों के जन्म का कारण उनके पूर्वजन्म के कर्म हैं जिनका सुख-दुःख रुपी भोग करने के लिए अनेकानेक योनियों में ईश्वर जीवात्माओं को जन्म देता है। मनुष्य का जन्म पूर्व कर्मों के भोग व नये वेदविहित कर्मों को कर मोक्ष की प्राप्ति है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,आप के लेख के बारे में यह कहना चाहता हूँ कि यह जो बातें आप ने लिखी हैं ,मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ लेकिन मेरी एक जगिआसा है . पिछली योनी में हम ने किया किया था ,उस के अनुसार ही हम को वर्तमान योनी में फल भोगना पड़े गा .यानी पिछले जन्मों का कर्म हमें भोगना ही पड़ेगा ,इस के अर्थ यह हुए कि भगवान् ने हमें अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही इंसान पशु पक्षी कीड़े मकौड़े बना कर भेजा है . दुसरे शब्दों में यह जनम मरण भगवान् के हाथों में ही है .”सभी जीवात्माओं को जन्म देना भी ईश्वर के ही अधीन है” यह आप की लिखी पंक्ति पर मुझे कुछ भ्रम है .
जब हम छोटे होते थे तो सकूल में पड़ा करते थे कि भारत की आबादी ३६ करोड़ थी और अब यह १२५ करोड़ है .इस का ज़िआदा कारण यह है कि पुराने ज़माने में जब कोई प्लेग या ऐसी बीमारी या ब्वा फ़ैल जाती थी तो लोग मरने लगते थे किओंकि मेडिकल सुभिधायें होती नहीं थीं .अब बहुत बिमारीआं जैसे पोलियो बगैरा तो ख़तम ही हो गई हैं ,देंग्हू रोग आते ही हकूमत हरकत में आ जाती है और लोगों की जाने बच जाती हैं .
एक बात और है कि मुसलमानों को छोड़ कर बाकी सब लोग आज कल दो या तीन बच्चे से ज़िआदा बच्चे पैदा नहीं करते किओंकि बहुत बच्चों को पालना और उन को पडाना मुश्किल है लेकिन मुसलमान अपनी आबादी बढाने के चक्कर में दस दस बच्चे पैदा कर रहे हैं जिस को देख कर आर एस एस वाले हिन्दुओं को भी कह रहे हैं कि बच्चे ज़िआदा पैदा करो ,नहीं तो हिन्दुओं की गिनती कम हो जायेगी .
अब मेरी जगिआसा यह है कि भगवान् की मर्ज़ी से हम कैसे इस संसार में आये किओंकि जब हमारे बजुर्ग दस दस बच्चे पैदा करते थे तो अब हमारे दो दो बच्चे किओं पैदा हो रहे हैं ? किया इस में हमारी मर्ज़ी नहीं है कि हम कितने बच्चे चाहते हैं ?
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपका एक एक शब्द पढ़ा। अच्छा लगा। आपने जो जिज्ञासा की है लगभग वही जिज्ञासा आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व देहरादून के आर्यसमाज मन्दिर में एक व्यक्ति ने एक विद्वान से की थी। इसका उत्तर है कि ब्रह्माण्ड में अनन्त जीवात्मायें हैं जिनकी गणना मनुष्य नहीं कर सकता। हम कहते हैं कि विश्व में मनुष्यों की जनसंख्या 7 अरब व इससे कुछ अधिक है। अरब के बाद यह 100 अरब भी हो सकती है, फिर एक हजार अरब और उसके बाद 1 लाख अरब आदि आदि। यह सभी संख्यायें अनन्त जीवात्माओं से बहुत कम है। अतः जनसंख्या बढ़ने से मनुष्यों को चिन्तित व भ्रमित नहीं होना चाहिये। पुराने समय के लोग ज्ञान विज्ञान से परिचित नहीं थे इसलिए मृत्यु की दर अधिक थी जिसका कारण अनेक प्रकार के रोग आदि हुआ करते थे। पुराने समय में पशु हत्यायें भी कम हुआ करती थी। आज जमीन के पशु हों या नदी और समुद्र के, मनुष्य इन्हें अपना भोजन बना रहा है जिससे इनकी संख्या कम हो रही है और मनुष्यों की बढ़ रही है। हमारे ज्ञान में न सही, ईश्वर की दृष्टि में सन्तुलन बना हुआ है। ईश्वर का नियम है कि भले का अन्त भला व बुरे का अन्त बुरा होता है। जो लोग आज बुरे काम कर रहे हैं और इससे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, कभी न कभी उन्हें इसका फल भोगना ही होगा। आप देख ही रहे हैं कि सीरिया में क्या हो रहा है। अभी क्या क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। हमें तो स्वयं बलवान व शक्तिशाली होकर बुराईयों का मुकाबला करना है। अन्तिम विजय सत्य की ही होती है। असत्य कभी नहीं विजयी हो सकता। हो सकता है कि जिस अच्छे समय की हम कल्पना करते हैं वह हमारे जीवन में न आ पाये, परन्तु उसने आना ही है, हमारे बाद आयेगा। हमारे हाथ में शुभ व अशुभ कर्म हैं। हमें अशुभ का त्याग और शुभ कर्म करने चाहियें। आज बुरे लोग तो एकजुट हो जाते हैं परन्तु अच्छे लोग बहुत कम एकजुट होते हैं। हमने देखा है कि अमरीका और चीन अपने स्वार्थों के लिए पाकिस्तान के नापाक इरादों व कारनामों को जानते हुए भी अभी तक अन्दरखाने व खुल कर भी उसकी सहायता करते आ रहे हैं। सत्य को सत्य और असत्य को असत्य कहने की ताकत उनमें नहीं है और न सत्य का साथ देने की। अगर सारा संसार सत्य और असत्य वा भले और बुरे के आधार पर एकजुट हो जाये तो बुराईयों का खात्मा शीघ्र हो सकता है। ईश्वर के विधान वेद को न मानने के कारण भी देश, समाज व विश्व में नाना प्रकार की समस्याये हैं जिनमें जनसंख्या की वृद्धि भी एक है। आप यदि कभी दर्शन व उपनिषद आदि पढ़ेंगे या गीता ही पढ़े तो ज्ञात होगा कि हमारे पूर्वजों की बुद्धि व मस्तिष्क कितना विकसित व महान था। अतः उनकी लिखी व कही बातों पर विश्वास करने के साथ हमें तर्क वितर्क कर उसे समझने का प्रयास करना चाहिये। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।
अन्तिम बात यह कहनी है कि यदि आपको मेरी बात ठीक न लगे तो यह मेरी कमी व अज्ञान होगा। वैदिक ज्ञान अपने आप में पूर्ण है। यदि आपकी फिर भी कोई शंका हो तो सूचित करें। मैं उसे अपने वरिष्ठ विद्वानों से हल कराकर आपको उत्तर दूंगा।