रंग-ढंग
आज फेसबुक पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था | अचानक चेतन को वे ,तस्वीरें दिखी जो उसने पांच साल पहले डाली थी | जिन्हे वह भूल ही गया था | अब ऐसी तस्वीरों की जरूरत ही कहाँ थी उसे |
कभी समाजसेवा का उस पर बुखार चढ़ा था, वह भी ईमानदारी से | माँ की सीख पर भी चलना चाहता था ,” ‘दाहिना हाथ दें तो बाएं को भी न पता चले’ सेवा मदद वो होती हैं बेटा |” लोग नाम शोहरत और पैसा सब कमा रहें थे एनजीओ से | पर चेतन तो अपना पुश्तैनी घर तक बेच किराये के मकान में रहने लगा था | बीनू एक स्कूल में शिक्षिका बन गयी थी वरना…|
कभी-कभी बीनू खीझ कर बोल ही देती कि “यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने को भी लाले पड़ जाते | भिक्षुओ की मदद करते-करते कहीं भिक्षुओं की कतार में खुद ही न खड़े हो जाना |”
चेतन झुंझला कर रह जाता | फेसबुक और ह्वाट्सएप न होते तो क्या होता मेरा ! यही तस्वीरें तो थी जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने अपने समाचार पत्र में जगह दी | चुपचाप मदद करने और दिखा कर मदद करने में बहुत फर्क होता है | काम से नहीं नाम से शोहरत और पैसा मिलता है | समाज सेवा तो तब भी कर रहा था अब भी कर रहा हूँ , बस जरा रंग-ढंग बदल दिया |
” कोई आया है , अरे कहाँ खोये हो जी ! ”
” कहीं नहीं ! बुलाओं |”
“जी चेतन बाबू,ये एक लाख रूपये हैं | बस मुझे दान की रसीद दे दीजिये जिससे मैं टैक्स बचा सकूँ |
हाँ, हाँ क्यों नहीं मोहन बाबू अभी देता हूँ |