कविता : देश प्रेम की हाला
यह देश प्रेम की हाला कैसी होती है,
पीने वाले को होश कहाँ रह जाता है,
माँ बाप बहन भाई नारी को भूल-भूल,
वह मातृ भूमि बलि-वेदी पर चढ़ जाता है ।।
इन गीदड़ पाकिस्तानी कुत्तों की खातिर,
भारत माँ के शिशु नाहर मारे जाते हैं,
हम समझौतों की मेजों पर क्यों बैठ बैठ,
इन सिंहों के बलिदान व्यर्थ कर आते हैं ।।
जिन माताओ के लाल छिन गए, बहनों के,
भाई, बच्चों के बाप, न वापस आएंगे,
हैं उजड़ गए जिनके सुहाग, अबलाओं की
मर्मान्तक चीखों का जबाब दे पाएंगे ??
अब शांति वार्ताओं का नाटक मत खेलो,
अब शान्ति-अहिंसा को ताके पर रहने दो ,
‘जैसे को तैसा’ का निनाद उद्घोष करो,
यदि अपना एक मरे, उनके दस मरने दो ।।
अब पाञ्चजन्य का शंखनाद करना होगा,
गांडीव उठा उसकी टंकार सुनाना है,
राणा का , वीर शिवा का पौरुष, स्वाभिमान
शंकर का तांडव नृत्य पुनः दुहराना है ।।
दुंदुभी बजा दो रण की , मंगल गान करो ,
इनके बलिदानों का कुछ तो सम्मान करो,
प्रति दिन के झगड़ों का अब तो अवसान करो ।
माता के तन पर लगे व्रणों का ध्यान करो ।।
यदि चूक गए अब तो गद्दार कहाओगे ,
भारत माता के तुम कपूत कहलाओगे,
इतिहास तुम्हें कायर , बुजदिल , संज्ञा देगा,
कैसे माता को काला मुंह दिखलाओगे ।।
—विद्याभूषण मिश्र ‘ज़फ़र’
बहुत अच्छा गीत !