कविता

बेटियाँ कुछ लेने नहीं आतीं पीहर

बेटियाँ
पीहर आती है
अपनी जड़ों को सींचने के लिए
तलाशने आती हैं भाई की खुशियाँ
वे ढूँढने आती हैं अपना सलोना बचपन
वे रखने आतीं हैं
आँगन में स्नेह का दीपक
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर

बेटियाँ
ताबीज बांधने आती हैं दरवाजे पर
कि नज़र से बचा रहे घर
वे नहाने आती हैं ममता की निर्झरनी में
देने आती हैं अपने भीतर से थोड़ा-थोड़ा सबको
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर

बेटियाँ
जब भी लौटती हैं ससुराल
बहुत सारा वहीं छोड़ जाती हैं
तैरती रह जाती हैं
घर भर की नम आँखों में
उनकी प्यारी मुस्कान
जब भी आती हैं वे, लुटाने ही आती हैं अपना वैभव
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर

बहुत चंचल बहुत
खुशनुमा सी होती है बेटियाँ
नाज़ुक सा दिल रखती है मासूम सी होती है बेटियाँ
बात बात पर रोती है
नादान सी होती है बेटियाँ
रेहमत से भरपूर
खुदा की नियामत है बेटियाँ
घर महक उठता है
जब मुस्कराती हैं बेटियाँ
अजीब सी तकलीफ होती है
जब दूसरे घर जाती है बेटियाँ
घर लगता है सूना सूना कितना रुला के जाती है बेटियाँ
ख़ुशी की झलक
बाबुल की लाड़ली होती है बेटियाँ
ये हम नहीं कहते
यह तो रब कहता है क़े जब मैं बहुत खुश होता हूँ तो जनम लेती हैं
प्यारी सी बेटियाँ

*दिलीप भाटिया

जन्म 26 दिसम्बर 1947 इंजीनियरिंग में डिप्लोमा और डिग्री, 38 वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग में सेवा, अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक अधिकारी