ग़ज़ल : मुझसे तू छूट रहा है
जाने क्यूँ लगता मुझसे तू छूट रहा है.
और कहीं कुछ धीरे-धीरे टूट रहा है.
खुशियों के दो पल जो चुराये थे जीवन से,
वक़्त उसी चोरी को मुझसे लूट रहा है.
तेरी हवायें मेरे तक क्यों आतीं नहीं हैं,
गीतों-ग़ज़लों का मौसम क्यों रूठ रहा है.
दर्द दबा था अब तक जो पर्वत के नीचे,
लगता है वो लावा बनकर फूट रहा है.
सच्चाई अब क्यों ना लगती है सच्चाई?
सच्चाई में पलता क्या कुछ झूठ रहा है ?
बहुत सुंदर ग़ज़ल !
दर्द का बयान बहुत खूबसूरत है