साहित्य का नशा
“घर-परिवार -समाज सब भूल नेट में खोयी रहती हो। ये कैसा नशा पाल लिया रितु? मैं कहता रहता हूँ , नशेड़ी न बनो। नेट पर रहो पर एक नार्मल यूज़र की तरह ,एडिक्ट की तरह नहीं। कब से आव़ाज लगा रहा हूँ। पर तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंग रही। हद है यह तो।”
“नशा , ये नेट का नशा , मेरी बात यारों मानो, नशे में नहीं हो तो करो ये ‘नशा’ जरा । ” खिलखिला पड़ी रितु।
“तू पगला गयी है रितु । मेरे पास और भी नशे है करने को इस नशे के सिवा। “
“हा जी पागल हो गयी हूँ मैं। महीने दो महीने में घर आते हो फिर चिल्लाते हो ये कहाँ है वो कहाँ है। व्यस्त थी कुछ लिखने में नहीं सुना। नशा जब दर्द की दवा बन जाये तो फिर उस नशे को अपनाने में बुराई ही क्या है जी! ये साहित्य को पढ़ने-लिखने का नशा है जो अब तो बढ़ेगा ही। देखो आज पत्रिका में मेरी कविता छपी है।”
“तो, कौन सा तीर मार ली,इतनी पढ़ाई पहले करती तो आज आईएएस-पीसीएस होती! खाना लगा दोगी या या वो भी खुद ले लूँ |
…सविता
बढ़िया कहानी !