लघुकथा

साहित्य का नशा

“घर-परिवार -समाज सब भूल नेट में खोयी रहती हो। ये कैसा नशा पाल लिया रितु? मैं कहता रहता हूँ , नशेड़ी न बनो। नेट पर रहो पर एक नार्मल यूज़र की तरह ,एडिक्ट की तरह नहीं। कब से आव़ाज लगा रहा हूँ। पर तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंग रही। हद है यह तो।”

“नशा , ये नेट का नशा , मेरी बात यारों मानो, नशे में नहीं हो तो करो ये ‘नशा’ जरा । ” खिलखिला पड़ी रितु।

“तू पगला गयी है रितु । मेरे पास और भी नशे है करने को इस नशे के सिवा। “

“हा जी पागल हो गयी हूँ मैं। महीने दो महीने में घर आते हो फिर चिल्लाते हो ये कहाँ है वो कहाँ है। व्यस्त थी कुछ लिखने में नहीं सुना। नशा जब दर्द की दवा बन जाये तो फिर उस नशे को अपनाने में बुराई ही क्या है जी! ये साहित्य को पढ़ने-लिखने का नशा है जो अब तो बढ़ेगा ही। देखो आज पत्रिका में मेरी कविता छपी है।”
“तो, कौन सा तीर मार ली,इतनी  पढ़ाई पहले करती तो आज आईएएस-पीसीएस होती! खाना लगा दोगी या या  वो  भी  खुद ले लूँ |

…सविता

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

One thought on “साहित्य का नशा

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कहानी !

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