सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द
ओ३म्
सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े अनेक रहस्य हैं जिन्हें विज्ञान आज भी खोज नहीं पाया अथवा जिसका विज्ञान जगत व हमारे धार्मिक व सामाजिक लोगों का यथोचित ज्ञान नहीं है। महर्षि दयानंद सत्य-ज्ञान के जिसाज्ञु थे। उन्होंने धर्म-समाज-ज्ञान-विज्ञान किसी भी पक्ष की उपेक्षा न कर सभी विषयों का यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से देश का भ्रमण कर उस समय उपलब्ध प्राचीन व प्राचीनतम ग्रन्थों सहित अधिकारी विद्वानों के उपलब्ध ग्रन्थों का भी अध्ययन कर उनमें उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त किया। ऐसा कर उनको अनेक नये तथ्यों व रहस्यों का ज्ञान हुआ जिसे वह अपने प्रवचनों में प्रस्तुत करते थे और जब उन्होंने साहित्य सृजन का कार्य किया तो सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में उस ज्ञान का प्रसंगानुसार वर्णन किया। उनसे प्राप्त सृष्टि के रहस्य सम्बन्धी ज्ञान के लिए तो उनके सभी ग्रन्थों को पढ़ना आवश्यक है परन्तु आज के लेख में हम सत्यार्थप्रकाश से उनके कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे कुछ प्रमुख बातों का ज्ञान हो सके।
जगत की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि एक अरब, छानवें करोड़, कई लाख और कई सहस्र वर्ष जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इस का स्पष्ट व्याख्यान उन्होंने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में विस्तार से किया है, वहीं देखना उचित है। वह आगे बताते हैं कि सब से सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जा सकता उसका नाम परमाणु है। साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है, तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात् तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उस का दोगुना होने से पृथिवी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिला कर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। यहां हम विचार करते हैं कि यदि स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में कोई व्यक्ति उनसे परमाणु विषयक इस विवरण पर विस्तृत व्याख्या लिखने का अनुग्रह करता तो उत्तम होता जिससे हमें इस विषय के व्याख्या सहित उनके विस्तृत विचार ज्ञात हो सकते थे। उनसे इनका श्रोत व सन्दर्भ भी जाना जा सकता था। अब उनके न रहने पर हमें नहीं लगता की कोई ऐसा विद्वान है जो परमाणु विज्ञान उनके इन कथनों का आधुनिक विज्ञान से संगति लगाकर व समाधान कर सके।
अगला प्रश्न महर्षि दयानन्द यह लेते हैं कि इस सृष्टि का धारण कौन करता है। कोई कहता है शेष अर्थात् सहस्र फण वाले सप्र्प के शिर पर पृथिवी है। दूसरा कहता है कि बैल के सींग पर, तीसरा कहता है कि किसी पर नहीं, चैथा हता है कि वायु के आधार, पांचवां कहता है कि सूर्य के आकर्षण से खिंची वा खैंची हुई अपने स्थान पर स्थित, छठा कहता है कि पृथिवी भारी होने से नीचे-नीचे आकाश में चली जाती है इत्यादि। इनमें से किस बात को सत्य मानें? इसके उत्तर में वह कहते हैं कि जो शेष, सर्प्प और बैल के सींग पर धरी हुई पृथिवी स्थित बतलाता है उस को पूछना चाहिये कि सर्प्प और बैल के मां बाप के जन्म समय किस पर थी? तथा सर्प्प और बैल आदि किस पर हैं? बैल वाले मुसलमान तो चुप ही कर जायेंगे। परन्तु सप्र्प वाले कहेंगे कि सर्प्प कूर्म पर, कूर्म जल पर, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश में ठहरा है। उन से पूछना चाहिये कि सब किस पर हैं? तो अवश्य कहेंगे परमेश्वर पर। जब उन से कोई पूछेगा कि शेष और बैल किस का बच्चा है? शेष कश्यप-कद्रू और बैल गाय का। कश्यप मरीची, मरीची मनु, मनु विराट्, विराट् ब्रह्मा का पुत्र, ब्रह्मा आदि सृष्टि का था। जब शेष का जन्म ही नही हुआ था, उसके पहले पांच पीढ़ी हो चुकी है, तब किस ने धारण की थी? अर्थात् कश्यप के जन्म समय में पृथिवी किस पर थी? तो ‘तेरी चुप मेरी भी चुप’ और लड़ने लग जायेंगे। इस का सच्चा अभिप्राय यह है कि जो ‘बाकी’ रहता है उस को शेष कहते हैं। किसी कवि ने ‘शेषाधारा पृथिवीत्युक्तम्’ ऐसा कहा कि शेष के आधार पृथिवी है। दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझ कर सर्प्प की मिथ्याकल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक रहता है इसी से उसको, परमेश्वर को, ‘शेष’ कहते हैं और उसी के आधार पर पृथिवी है। ‘सत्येनोत्तभिता भूमिः’ यह ऋग्वेद का वचन है। इसका अर्थ है कि जो त्रैकाल्याबाध्य है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमेश्वर ने भूमि, सूर्य और सब लोक–लोकान्तरों का धारण किया है। ‘उक्षा दाधार पृथिवीमुत द्याम्’, यह भी ऋग्वेद का वचन है। इसमें ‘‘उक्षा” शब्द को देखकर किसी ने बैल का ग्रहण किया होगा क्योंकि उक्षा बैल का भी नाम है। परन्तु उस मूढ़ को यह विदित न हुआ कि इतने बड़े भूगोल के धारण करने का सामर्थ्य बैल में कहां से आयेगा? वैदिक साहित्य में उक्षा वर्षा द्वारा भूगोल के सेचन करने से सूर्य का नाम है। उस ने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्यादि का धारण करने वाला बिना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है। अतः महर्षि दयानन्द सभी उपलब्ध विवरणों की वैदिक साहित्य से तुलना कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस सृष्टि को धारण करने वाला ईश्वर वा परमेश्वर ही है, और कोई नहीं। महर्षि दयानन्द समाधि सिद्ध अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार किये हुए अथवा ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति किये हुए मनुष्य वा विद्वान थे। वह वैज्ञानिकों के मत कि समस्त सौर्य मण्डल वा ब्रह्माण्ड को आकर्षण-अनुकर्षण, प्रत्येक पिण्ड की अपनी-अपनी धुरी व वृत्ताकार गति के कारण स्थित-स्थिर हैं वा गति कर रहे हैं, इनको स्वीकार करने के साथ परमेश्वर का इन सबका उत्पत्तिकर्ता व धारणकर्ता स्वीकार करते हैं।
इसी प्रसंग में एक अन्य प्रश्न महर्षि दयानन्द ने यह किया है कि इतने बड़े-बड़े भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण कर सकता होगा? इसका उत्तर वह यह कहकर देते हैं कि जैसे अनन्त आकाश के सामने बड़े-बड़े भूगोल अर्थात् समुद्र के आगे जल के छोटे कण के तुल्य भी नहीं हैं, वैसे अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक एक परमाणु के तुल्य भी नहीं कह सकते। वह बाहर भीतर सर्वत्र व्यापक अर्थात् ‘विभूः प्रजासु’ (यजुर्वेद वचन), वह परमात्मा सब प्रजाओं में व्यापक होकर सब का धारण कर रहा है। जो वह ईसाई, मुसलमान व पुराणियों के कथनानुसार विभू न होता तो इस सब सृष्टि का धारण कभी नहीं कर सकता था क्योंकि विना प्राप्ति (ईश्वर के सर्वव्यापक अर्थात् सबको सर्वत्र प्राप्त हुए बिना) के किसी को कोई धारण नहीं कर सकता। वह आगे कहते हैं कि यदि कोई कहे कि ये सब लोक-लोकान्तर परस्पर आकर्षण से धारित होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उन को यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है वा सान्त (अन्त वाली वा सीमित)? जो अनन्त कहें तो आकार वाली वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकती और जो सान्त कहें तो उनके पर भाग सीमा अर्थात् जिस के परे कोई भी दूसरा लोक नहीं है, वहां किस के आकर्षण से धारण होगा? जैसे समष्टि कहाता है और एक-एक वृक्षादि को भिन्न-भिन्न गणना करें तो व्यष्टि कहाता है, वैसे सब भूगोलों को समष्टि गिनकर जगत् कहें तो सब जगत् का धारण और आकर्षण का कर्ता विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं। इसलिए जो सब जगत् को रचता है वही ‘स दाधार पृथिवीमुत द्याम्।।’, यह यजुर्वेद का वचन है, इसमें कहा गया है कि जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोक-लोकान्तर पदार्थ तथा सूर्यादि प्रकाश वाले लोक और पदार्थों का रचन व धारण परमात्मा ही करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है वही सब जगत् का कर्ता और धारण करने वाला है।
महर्षि दयानन्द सौर मण्डल विषयक कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथव्यादि लोग घूमते हैं वा स्थिर हैं? वह उत्तर में कहते हैं कि घूमते हैं। (प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाये? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द वेदों के आधार पर देते हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए। वेदों का ज्ञान और आधुनिक विज्ञान की खोजे परस्पर एक समान व पूरक हैं। पूर्व प्रश्न के उत्तर में महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के अध्याय 3 के मन्त्र 63 ‘आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः।।’ को प्रस्तुत कर उसका अर्थ बताते हुए कहा है कि यह भूगोल समुद्र व नदी के जल सहित सूर्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिए भूमि अर्थात् सम्पूर्ण पृथिवी घूमा करती है। एक अन्य वैज्ञानिक खोज को वेदों में दिखाने हेतु वह यजुर्वेद के 33/43 मन्त्र ‘आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।।’ को प्रस्तुत कर कहते हैं कि जो सविता अर्थात् सूर्य वर्षादि का कर्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्तमान, सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप, वृष्टि वा किरण के साथ आकर्षण गुण से सह वर्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। इसी प्रकार एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे- दिवि सोमो अधि श्रितः।। यह अथर्ववेद का 14/1/1 मन्त्र है। इसका तात्पर्य बताते हुए दयानन्द जी कहते हैं कि यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्यान्ह, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देश–देशान्तरों में सदा वर्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्यावर्त में सूर्यादय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्यावर्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्यावर्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है।
महर्षि दयानन्द ने सृष्टि रचना व इससे जुड़े विषयों पर जो तथ्य वैदिक साहित्य के आधार पर प्रस्तुत किये हैं वह अति विस्तृत एवं विज्ञानसम्मत हैं। इसके लिए उनके समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। महाभारत काल के बाद भारत के ब्राह्मण कहे जाने वाले विद्वानों ने वैदिक साहित्य की उपेक्षा कर अज्ञानयुक्त पुराणों आदि की रचना कर मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति आदि की मिथ्या परम्पराओं को प्रचलित किया। उन्होंने सांगोपांग वेदाध्ययन न कर इसका परिणाम सामाजिक व वैज्ञानिक उन्नति का कार्य बन्द कर दिया था जिसके कारण भारत का पतन हुआ। वहीं दूसरी ओर यूरोप के सुधीजनों ने वहां की विज्ञान विरूद्ध व विज्ञान रहित धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा कर विज्ञान की उन्नति पर अपना ध्यान व शक्ति को केन्द्रित किया जिसका परिणाम आज का आधुनिक विज्ञान है। हमारे पौराणिक विद्वान व संसार के अन्य मतवाले आज भी वहीं हैं जहां वह मध्यकाल में थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ऐसे पहले वैदिकधर्मी विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने विज्ञान को धर्म को आवश्यक अंग स्वीकार किया और विज्ञान की उपेक्षा न कर उसका पोषण किया। महाभारत काल से पूर्व वैदिक धर्म विज्ञान का पूर्ण पोषक व आधार रहा है। इसी कारण महाभारत काल तक भारत में ज्ञान व विज्ञान सर्वोच्च रहा। ज्ञान व विज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यतायें एवं इनके परस्पर समन्वय से धर्म, समाज व विज्ञान की उन्नति होकर मानवजाति को लाभ वा सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। आज भी मध्यकालीन अज्ञानतापूर्ण मान्यतायें चाहे वह किसी भी मत व मतान्तर की हों, उचित नहीं कही जा सकती। सभी मतों व धर्मों को विज्ञान के आलोक में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों का संशोधन कर अपने-अपने मत व धर्म को मनुष्यों के लिए अधिक उपयोगी, स्वीकार्य एवं परिणाम प्राप्ति में सहायक बनाना चाहिये। हम स्वामी दयानन्द के धर्म व विज्ञान के सन्तुलित सिद्धान्तों का अध्ययन करने व उसमें निहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की प्ररेणा को आज के युग में सर्वाधिक प्रासंगिक व सभी मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये जाने की आवश्यकता को अनुभव करते हैं क्योंकि इसी में मनुष्यजाति का कल्याण है।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख, मान्यवर !
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी।
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा लेकिन बचपन से आज तक यही देखता सुनता आ रहा हूँ कि धरती बैल के सींग पर अटकी हुई है ,इस को किया कहूँ किओंकि यह उन लोगों का विशवास ही है जो उन को पंडितों दुआरा समझाया गिया है . आप तो महान गियानी हैं किओंकि आप ने धर्म के बारे में इतनी स्टडी की है कि आम इंसान इस सोच पर पहुँच ही नहीं सकता . अज तक मैंने बहुत कुछ सुना है ,कोई धर्म राज के दरबार का मन ही मन चित्रण करता है ,कोई देवताओं में भगवान् को ढूँढता है ,कोई कहता है भगवान् जरे जरे में है सिर्फ महसूस करने की जरुरत है ,कोई समाधि में धियान करता है ,यानी किसी को समझ नहीं कि वोह कहाँ है ,सिर्फ इमैजिनेशन के आधार पर ही विशवास है . इसी लिए मेरा तो सीधा साधा ग्रामीण जैसा सिद्धांत है कि मुझे कुछ नहीं पता कि भगवान् कहाँ है लेकिन इतना जानता हूँ कि वोह है और जब ही हम कोई बुरा काम करें तो यह सोचना चाहिए कि भगवान् हम को देख रहा है .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके ज्ञान व अनुभव का मैं प्रशंसक हूं। आपने जो बातें लिखी हैं वह सत्य व निर्विवाद हैं। मुझे एक प्रवचन में सुनी लघुकथा याद आ गई। क्षमापूर्वक लिख रहा हूं। पर्वतों की रानी मसूरी में एक आधुनिक महिला अपनी 2-3 साल की बेटी के साथ घूम रही थी। बेटी आगे आगे चल रही थी। उसके आगे एक साधू जा रहा था। यह बच्ची दौड़ते हुए उस साधू से आगे निकल गई। साधु ने उसे देखा तो उसकी सुन्दरता देख कर दंग रह गया। उसने कुछ विचार किया और अपने झोले में से एक केला निकाला, बच्ची को बुलाया और उसे केला दे दिया। बच्ची ने अपने बाल स्वभाव के अनुसार उस केले को लिया और खाने लगी। पीछे उसकी मां ने यह दृश्य देखा तो वह दौड़ कर अपनी बच्ची के पास आई और उसके गाली पर जोर से थप्पड़ जमाया। लड़की रोने लगी। इससे साधू को बेचैनी हुई। उसने उस देवी, बच्ची की मां, से कहा कि क्या आप मेरे केला देने, आपकी बेटी के उसे ले लेने और उसके खाने से नाराज हैं? उस महिला ने कहा कि नहीं। मैं इससे नाराज नहीं हूं। मैंने इस बेटी को शिक्षा दी है कि जब भी किसी से कोई वस्तु लो, तो पहले उसका धन्यवाद या thanks करो और उसके बाद उसे खाओं। इसने मेरी शिक्षा को भुलाकर व्यवहार किया। इस कारण मैंने इसे सजा दी। आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी ! यह कहानी सुनाकर प्रवचनकर्ता ने कहा था कि जब हम छोटी छोटी चीजों के लिए दूसरों का धन्यवाद करते हैं तो उस ईश्वर, जिसने हमारे लिए यह संसार बनाया, हमें माता-पिता, भाई-बहिन और सुखों का भोग करने के लिए अनेक वस्तुयें दी हैं, क्या उसकी बनाई किसी वस्तु का उपयोग करने से पहले हमें उसका धन्यवाद नहीं करना चाहिये? मुझे यह घटना व कहानी शिक्षाप्रद लगी और इसने मेरे अन्दर स्थाई निवास कर रखा है। ईश्वर की पूजा, उपासना, ध्यान, मनन, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना, कीर्तन आदि सब कुछ ईश्वर का धन्यवाद करने के भिन्न भिन्न तरीके हैं जो जरूरी हैं। सादर।