सभी धार्मिक मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कस कर उसका प्रचार करने वाले महर्षि दयानन्द प्रथम धार्मिक महापुरुष
ओ३म्
ऋषि जन्मोत्सव (3 मार्च) एवं बोधोत्सव (7 मार्च) पर
देश और संसार में प्रतिदिन लाखों लोग जन्म लेते हैं और अपनी आयु भोग कर काल के गाल में समा जाते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अब तक संसार में कई खरब से भी अधिक लोग जन्में व मरे हैं। संसार के लोगों ने इनमें से कुछ लोगों को ही स्मरण रखा है। यदि इन सभी स्मृत महापुरुषों के गुण-दोषों को ध्यान में रखकर विचार किया जाये तो सत्य के प्रति पूर्ण आग्रही महापुरुषों की संख्या अत्यन्त सीमित व नगण्य होगी। इन नामों में हमें महर्षि दयानन्द का नाम सर्वोपरि दृष्टिगोचर होता है जिन्होंने कहा कि मनुष्य को ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।’ हमें यह व इस प्रकार का सिद्धान्त किसी मत, सम्प्रदाय व धार्मिक संगठन में दृष्टिगोचर नहीं होता, राजनैतिक व सामाजिक संगठनों से तो इसकी अपेक्षा की ही नहीं जा सकती। स्वामी दयानन्द जी के जीवन पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य सामने आता है कि उनका अपना कोई निजी मन्तव्य नहीं था। जो भी ज्ञान-विज्ञान व युक्ति व प्रमाणों सहित वेद के अनुकूल मान्यतायें व सिद्धान्त हैं, उन्हीं को महर्षि दयानन्द ने न केवल स्वीकार किया अपितु इन्हें सत्य सिद्ध करने के लिए वह सभी मतों के विद्वानों से वार्तालाप व शास्त्रार्थ आदि के लिए भी सदैव तत्पर रहते थे। सत्य व ज्ञान से पूर्ण धार्मिक सिद्धान्तों के पालन की उनकी इस प्रवृत्ति के कारण हम उन्हें एक धर्म-वैज्ञानिक के रूप में देखते हैं।
मनुष्य का जन्म पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर होता है। यही कारण है कि किन्हीं दो व्यक्ति के गुण-कर्म-स्वभाव, मुखाकृति आदि परस्पर एक समान नहीं होती। महर्षि दयानन्द कुछ विशिष्ट संस्कार लेकर जन्में थे। 14 वर्ष की अवस्था ने पिता कर्षनजी तिवारी ने कुल परम्परा के अनुसार शिवरात्रि के दिन व्रतोपवास करने को कहा तो आप सहमत हो गये परन्तु जब शिव की पिण्डी पर चूहों को उछल कूद करते व मूर्ति को मलिन करते देखा तो आपके पूर्व संस्कारों के कारण आपको शिव की मूर्ति शक्तिहीन, बुद्धिहीन व जड़ प्रतीत हुई। भगवान शिव द्वारा क्षूद्र चूहों की क्रीड़ा को रोकने व उन्हें दण्डित न करने का कारण उन्होंने अपने पिता से पूछा तो वह इसका समुचित उत्तर न दे सके। समाधान न मिलने के कारण आपने मूर्तिपूजा करना ही छोड़ दिया। यह सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने अथवा अज्ञानमूलक कर्मों का त्याग और ज्ञानयुक्त कर्म ही करने के प्रति उनकी दृण प्रतिबद्धता की सूचक है। इसके बाद के शेष जीवन में हम स्वामी दयानन्द जी को ज्ञान व सत्य का आचरण व व्यवहार तथा अज्ञान व असत्य कर्मों का त्याग करते हुए ही पाते हैं। असत्य व अज्ञानयुक्त बातें वह किंचित सहन नहीं कर सकते थे। इसका एक उदाहरण सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ मेले में मिलता है जहां मौन व्रत रखे हुए स्वामीजी के तम्बू के पास आकर एक व्यक्ति भागवत पुराण की मिथ्या प्रशंसा करता है तो वह अपना तत्काल मौनव्रत तोड़कर उसका प्रतिवाद करते हैं। सत्य व ज्ञान के प्रति ऐसी दृण भावना हम संसार के अन्य किसी ष्धार्मिक महापुरुष वा धर्मवेत्ता में नहीं पाते।
महर्षि दयानन्द सन् 1839 की शिवरात्रि की घटना के बाद से ही सत्य व ज्ञान की खोज में लग गये थे। मथुरा के गुरु विरजानन्द जी की कुटिया में सन् 1860 में अध्ययन के लिए आने से पूर्व के 21 वर्षों में उन्होंने देश के अनेक भागों का भ्रमण कर बड़ी संख्या में धार्मिक विद्वानों व योगियों आदि की खोज कर उनसे उपलब्ध हो सकने वाले ज्ञान को प्राप्त किया था। सन् 1860 से सन् 1863 तक स्वामी दयानन्द जी ने गुरु विरजानन्द से आर्ष वैदिक व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का अध्ययन किया और अनेक धार्मिक विषयों पर उनसे चर्चा कर अपने समस्त सन्देहों का निवारण किया। स्वामी दयानन्द के यह गुरु विरजानन्द जी भी सत्य के अन्वेषी एवं सत्य ज्ञान के समर्थक एवं पोषक थे और असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वासों के विरोधी थे। प्राचीन ऋषियों व उनके ग्रन्थों की सत्य ज्ञानयुक्त मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आपकी गहरी श्रद्धा थी और ईश्वरीय ज्ञान वेदों के आप सच्चे भक्त थे। नेत्रान्ध होने के कारण आप वेदों का सीमित अध्ययन ही कर सके होंगे ऐसा हमारा अनुमान है। वेदों के प्रति आपमें जो श्रद्धा थी उसे भी आपने महर्षि दयानन्द को संस्कार व दाय के रूप में प्रदान किया। गुरु जी की संगति, सत्संग तथा प्रेरणा से ही दयानन्द जी ने वेद व सत्यज्ञान के प्रचार-प्रसार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। मथुरा से आगरा आकर आप यहां लम्बे समय तक रहे और वेदों की प्राप्ति के लिए प्रयास किया। जब आगरा में आपको वेद प्राप्त नहीं हुए तो आप इनकी खोज व प्राप्ति के लिए ग्वालियर गये और वहां से करौली, जयपुर, अजमेर होते हुए सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ में पधारे थे। इस कुम्भ के मेले के अवसर पर देहरादून के एक कबीरपंथी साधू स्वामी महानन्द हरिद्वार गये और स्वामी दयानन्द जी से मिले। आपने स्वामीजी के तम्बू में चार वेद देखें। इन पर चर्चा की और वेद के दर्शन कर और यह जानकर कि स्वामी जी वेदों के मन्त्रों के अर्थ भी जानते हैं, निहाल हुए और देहरादून आकर अपने आश्रम, महानन्द आश्रम, का नाम बदलकर आर्यसमाज रख दिया। इस घटना से हमारा अनुमान है कि स्वामी जी को वेद ग्वालियर में मिले होंगे। यदि वहां नहीं तो फिर करौली, जयपुर या अजमेर में कहीं मिले होंगे। आर्य विद्वान इस पर प्रकाश डाल सकते हैं।
स्वामी दयानन्द जी सत्य के अपूर्व आग्रही थे। मूर्तिपूजा वेदों में नहीं है और न ही यह ज्ञान, तर्क व युक्ति के आधार पर उपयोगी सिद्ध होती है, अतः स्वामी दयानन्द जी ने मूर्तिपूजा और इसके अनुरूप मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्मना जाति व्यवस्था, छुआ-छूत वा अस्पर्शयता, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, बाल विवाह, आदि अन्धविश्वासों व कुप्रभाओं का अपनी पूरी शक्ति से खण्डन व विरोध किया और इसके साथ ही सबके लिए समान व निःशुल्क शिक्षा, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार पूर्ण युवावस्था में विवाह व गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। स्वामी जी वेदों को ईश्वर से प्राप्त, सत्य ज्ञान युक्त, धर्म के यथार्थ व पूर्ण ग्रन्थ मानते थे। वेदानुकूल वेदव्याख्या ग्रन्थों यथा उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति आदि को भी उन्होंने पूर्ण मान्य दिया है। स्वामी जी की इन सब मान्यताओं से युक्त एक अद्भुत अपूर्व ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है जिसे हम वेदों व समस्त वैदिक साहित्य का सार व निचोड़ कह सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश प्राचीन वेदों व वैदिक धर्म–संस्कृति के गुणों को सुरक्षित रखते हुए आधुनिक समय में सत्य व ज्ञान–विज्ञान सम्मत धर्म का प्रमुख धर्म ग्रन्थ है। इसकी यह भी विशेषता है कि इसमें सभी मतों की समीक्षा की गई है जिससे कि एक जिज्ञासु को सत्य धर्म का निर्धारण व उसका पालन करने में मार्गदर्शन व सहायता मिलती है। महर्षि दयानन्द के समस्त कार्यों व साहित्य पर दृष्टि डालने पर वह अपूर्व धार्मिक महापुरुष सहित ज्ञान-विज्ञान समन्वित मनुष्य के कर्तव्यों व धर्म के आदर्श आचार्य व धर्मवेत्ता सिद्ध होते हैं। उनके द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म ही आधुनिक युग में सत्य व ज्ञान पर आधारित एक मात्र धर्म है जो अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या कहानी-किस्सों-कथा आदि से रहित है। उनके प्रचारित वैदिक धर्म का पालन कर मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है व धर्म–अर्थ–काम व मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। स्वामीजी द्वारा बताये गये ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, माता-पिता व आचार्यों आदि की सेवा-सत्कार, परोपकार, सत्पात्रों को दान व यम-नियम युक्त जीवन को धारण कर मनुष्य की निश्चित रूप से इस जन्म व परजन्म में उन्नति होती है। आईये, महर्षि दयानन्द के जन्मोत्सव और बोधोत्सव पर उनके ग्रन्थों के अध्ययन का व्रत लें और उनकी सत्य शिक्षाओं का पालन कर अभ्युदय व निःश्रेयस के अधिकारी बनें।
–मनमोहन कुमार आर्य
प्रिय मनमोहन भाई जी, स्वामी दयानंद जी ने सत्य धर्म के प्रचार के फलस्वरूप ही आज आर्य समाज का सार्थक अस्तित्व है. महिलाएं भी इस कार्य में सक्रिय सहयोग दे रही हैं. उनकी प्रेरणा और प्रयास से हम भी कुछ-कुछ लाभ उठा लेते हैं. आपके सद्प्रयास का बहुत-बहुत आभार.
बहुत अच्छा लेख ! स्वामी दयानंद ने सत्य धर्म के प्रचार के लिए बहुत परिश्रम किया था और उसमें सफल रहे.
बहुत अच्छा लेख ! स्वामी दयानंद ने सत्य धर्म के प्रचार के लिए बहुत परिश्रम किया था और उसमें सफल रहे.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपने सत्य कहा है कि स्वामी दयानंद जी ने सत्य धर्म के प्रचार के लिए घोर तप वा परिश्रम किया था. यह भी सत्य है कि स्वामी दयानंद जी ने वैदिक धर्म को युक्ति, तर्क और प्रमाणों से सत्य का पर्याय सिद्ध किया और सभी मतों से वैचारिक लड़ाई में वह विजयी हुवे थे। सादर।
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .
नमस्ते एवं लेख पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी.