अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मन की बात
मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। उसमें भी नारी को उसने भिन्न आकार, रूप और दायित्व प्रदान कर उनका स्थान पुरुषों से ऊँचा रखा है। ये अलग बात है कि अधिकांश स्त्रियां इस बात से सहमत न हों, पर सत्य जो है सो यही है।
आजकल हर नारी के पास यही आग्रह है कि उन्हें पुरुषों के बराबर दर्जा मिले। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है?? सत्य तो यह है कि पुरुष स्त्री की बराबरी कदापि नहीं कर सकता। उसकी महानता के आगे पुरुष के सारे पराक्रम नगण्य हो जाते हैं।
अगर वर्तमान स्थिति की तुलना पौराणिक काल से की जाए, तो हमें काफी बदलाव दिखेंगे। स्त्रियों की स्वतंत्रता के प्रति सामाजिक सोच काफी हद तक बदली है। वे काफी हद तक स्वतन्त्र हो चुकी हैं। अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार बहुतों को प्राप्त हो चुका है। हालांकि फिर भी अभी एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जहां महिलायें पारंपरिक रूढ़िवादी सोच की पराधीनता में जीवन बिताने के लिए लाचार हैं।
आज स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर प्रगति के हर क्षेत्र में अग्रसर हैं। किस क्षेत्र में वे पुरुषों से कम हैं??
पिछले कुछ दशकों में नारी-शिक्षा के प्रति भी जागरूकता आई है देश में। स्त्री-पुरुष साक्षरता-दर का अंतर भी काफी तेजी से कम हो रहा है।
1951 में भारत में महिलाओं की साक्षरता-दर 8.86% थी और पुरुषों की 27.16%, वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार महिलाओं ने इस क्षेत्र में अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल की। उस समय (2011) तक देश की 65.46% स्त्रियां साक्षर हो चुकी थीं, और तब पुरुषों की साक्षरता-दर 82.14% थी।
पिछले साल संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सर्विसेज 2014 के परिणाम जारी किए, जिसमें शीर्ष चार स्थानों पर युवतियां ही सफल हुईं थीं- इरा सिंघल, रेणु राज, निधि गुप्ता और वंदना राव।
यहाँ तक तो सबकुछ सकारात्मक है।
मगर जैसी ही बात आधी आबादी की सुरक्षा पर आती है, वातावरण में मौन से उपजा सन्नाटा गहराने लगता है।
क्या कारण है कि स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं? किससे खतरा है उसको??
इस कड़वे सच से सभी अवगत हैं, पर वर्तमान में कोई निदान नहीं दिखता।
इसके दो वैकल्पिक निदान मेरे विचार में आ रहे हैं-
पहला, कि हमारी शिक्षा-पद्धति पाश्चात्य रंग में इस तरह रंग चुकी है कि अब उस रंग को छुड़ा पाना कठिन ही नहीं, असंभव है। हमें सिर्फ ये पढ़ाया-सिखाया जाता है किसने अब तक क्या किया है? कौन सा सिद्धांत प्रतिपादित किया है?, परंतु विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में बैठा कोई ये सीख देता है? कि क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए। हमें महापुरुषों की जीवनी पढ़ने की सलाह दी जाती है, पर किसी अध्यापक द्वारा ये प्रेरणा नहीं आरोपित की जाती कि उन महापुरुष से भी महान पुरुष बनो। आप किसी कक्षा की इतिहास की पाठ्यपुस्तक उठा लें- “किसने क्या कहा था? कब कहा था? किस सन्दर्भ में कहा था? क्या किया था? कैसे किया था? कब किया था? क्यों किया था?”
क्या शिक्षा का तात्पर्य केवल इतना ही है?? ये प्रणाली केवल छात्रों को रट्टू तोता बना सकती है, पर एक ‘इंसान’ नहीं। धर्म-शिक्षा नाम की भी कोई चीज़ होती है।
दूसरा, इसके लिए लोगों को अपनी मानसिकता बदलने के लिए तैयार होना पड़ेगा।
आदिकाल से लेकर अब तक हमने प्रगति तो बहुत कर ली, हो सकता है कुछेक वर्षों में हम चाँद पर भी बसने लगें, पर अभी भी काम-वासना में फंसा हुआ है। और वर्त्तमान पीढ़ियों का स्त्रियों के प्रति केवल भोग वाला दृष्टिकोण है।
स्त्री-पुरुष के मध्य उत्पन्न होनेवाला आकर्षण प्राकृतिक होने के कारण स्वाभाविक है। मन में बुरे विचारों का आना भी स्वाभाविक है। क्योंकि, मन का तो कार्य ही प्राणी को व्यर्थ के विषय में उलझाए रखना, और पतन के गर्त में धकेलना है। परंतु विवेक वह सारथी है, जो मन के बेलगाम घोड़े को सही राह दिखाता है। विवेक ही पतनोन्मुखी को उत्थान को ओर मोड़ने वाला दिव्य शक्ति है। बुरे विचार आएंगे, मगर विवेक का प्रयोग कर उनका दमन करना ही ‘मनुष्य’ का कर्त्तव्य है। यही विवेक एक मानव और पशु के अंतर को दर्शाता है। और यही विवेक जब मर जाता है, तो मनुष्य को पशु बनते देर नहीं लगती, और उसके कृत्य से समस्त मानव-जाति का सिर शर्म से झुक जाता है।
चाहे कुछ भी हो जाए, पर किसी भी स्थिति में विवेक नहीं मरना चाहिए।।
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शुभकामनाओं सहित..
~जय~
अच्छा लेख !