गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

औरत हूँ लाचार नही हूँ
इंसा हूँ बाजार नही हूँ ।

दुर्गा काली चण्डी ज्वाला
सिर्फ गले का हार नही हूँ ।

कद्र मिरी तुम करना सीखो
मैं बासी अखबार नही हूँ ।

सच के साथ खड़ी हूँ हरदम
दो धारी तलवार नही हूँ ।

जब जी चाहे मुझको बेचो
कोठी खेती कार नही हूँ ।

धरती पर मुझको आने दो
पापा सर का भार नही हूँ ।

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

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