ग़ज़ल : पुलकित करता है वन उपवन
कभी कभी तो पतझड़ भी, पुलकित करता है वन उपवन
कभी कभी तो बिन बरखा, दिल झूम के गाता है सावन
आज पुरानी राग ए जिय, लय मचला तो तूफान उठा
यौवन जीवन प्यारी छाया, मुंह मोड़ के तपता है मधुवन।।
एक बार मुड़कर देखों, उन राहों में खेलता बचपन था
यौवन भी था उन्माद लिए, सम्मान सजता है चाहचमन।।
हर उम्र सलीके से आती, हर शख्स बाग़ का माली है
हर फूल खिले अपनी बगिया, खुश्बू महकाता है उपवन ।।
गर राह में कोई मीत मिले, कानों को मधुर संगीत मिले
मानवता यह कहती है, सुन जाओ बताता है वृन्दावन ।।
अहसास करो सम्मान करो, न बैर भाव का फूल खिले
न तोड़ों डाली से कलियाँ, फूल भी गाता है मनभावन ।।
हम ही तो बाग़ लगाते हैं, उन फूलों से गुच्छ बनाते हैं
बिना फूल कैसे अर्पण, हरि हार सुहाता है ताम्रतपोवन ।।
— महातम मिश्र
उत्तम ग़ज़ल !
सादर धन्यवाद आदरणीय, हार्दिक आभार सर