कविता

कविता : माँ

माँ
मैं जब बहुत छोटी सी थी
तभी से मेरी माँ
बूढ़ी सी हो रही थी
और बीमार भी बहुत
रहने लगी थी
पर फिर भी मेरी
माँ का साथ
मेरे लिए अनोखा
और अनमोल था
मेरा सारा समय
माँ के आगे पीछे
रहने मैं ही गुज़रता था
माँ कहीं बाहर जाती
तो मैं लड़ पड़ती
कहती कहाँ गयी थी
आप मूझे छोड़ कर
और मैं रोने लगती
माँ मुझे बहुत समझाती
पर मैं रोती रहती ।
एक बार पूछ लिया था
माँ से मैंने
जब तूम नहीं रहोगी माँ
मैं केसे जी पाऊँगी !
तुम्हारे बिना मैं मर जाऊँगी
माँ बोली थी ,देखो बेटी
तू मूझे भूल जाओगी ,
जब तूम को भी बेटी होगी !
उस के लाड़ दुलार मैं
तूम जब खोई होगी !
जब तू भी एक बेटी की
माँ बन जायेगी !
पर माँ की बात झूंटी निकली
जब जब देखती हूँ बेटी का चेहरा
हर बार उभर आता है !
बेटी के चेहरे पर माँ का चेहरा
और मूझे माँ याद आती है
बहुत याद आती है !
फिर लगा माँ
कितना सही कह गयी
जिनके घर बेटियाँ
जन्म लेती है उन की माँ
हमेशा ज़िन्दा रहती है
बेटी की शक्ल मैं
सचमुच बेटी के रूप में
मैंने माँ को पा लिया !

— मीनाक्षी भालेराव