ग़ज़ल : चलती रहे ये ज़िंदगी
कुछ तुम रुको कुछ हम रुकें चलती रहे ये ज़िंदगी
कुछ तुम झुको कुछ हम झुकें ढलती रहे ये ज़िंदगी
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें सुनती रहे ये ज़िंदगी
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें कहती रहे ये ज़िंदगी
बहकें जो साथ साथ तो छलकी ये ज़िंदगी
मस्ती में झूमके चलें मचली रहे ये ज़िंदगी
घुट घुट के जीना भी है क्या ए यार कोइ ज़िंदगी
कोइ न साथ देगा बस छलती रहे ये ज़िंदगी
हर गम खुशी जो साथ साथ यार के जिए
आयें हज़ार गम यूंही हंसती रहे ये ज़िंदगी
वो हारते ही कब हैं जो सज़दे में झुक लिए
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी
रहरौ है हर एक शख्स और दुनिया है रहगुजर
खुश रंग यूंही चलते रहो पलती रहे ये ज़िंदगी
आया न साथ कोई, न कोई साथ जायगा
कुछ हमकदम हों साथ तो संभली रहे ये ज़िंदगी
गुल भी हैं और खार भी, इस रहगुजर में ‘श्याम’
हो साथ हमनफस कोई खिलती रहे ये ज़िंदगी
— डॉ श्याम गुप्त