गीतिका/ग़ज़ल

गजल

दर पे मेरे आना उनकी इनायत हो गई
बैठे-बिठाए जैसे एक बगावत हो गई

गुस्ताखियाँ उनकी निगाहों से मशहूर
हमसे भी शोहबत में हिमाकत हो गई

वो लग रहा था मासूम मेरे ठिकाने पे
बाहों में जैसे खुद की हिफाजत हो गई

उठा रहा था धुँआ लिबासों की आड़ में
जलन की जैसे रूह से खिलाफत हो गई

आईने पाक में था शरारत का मंजर
खामोश सी अदाओ से शराफत हो गई

फड़फड़ा रहे थे जो अरमा “मुस्कान”
दीदारे-यार से बेइरादा कयामत हो गई

निर्मला”मुस्कान”

निर्मला 'मुस्कान'

निर्मला बरवड़"मुस्कान" D/O श्री सुभाष चंद्र ,पिपराली रोड,सीकर (राजस्थान)

2 thoughts on “गजल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह !

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह !

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