गज़ल : गुबार मेरे
जब अपना कोई होता नहीं, इर्द गिर्द यार मेरे
पहुँच जाता हूँ गाँव अपने, दूर रख गुबार मेरे
उठा लाता चौबारों में, छिटके हुये दीदारों को
गमों के पहाड़ उड़ा जाते, बचपनी बयार मेरे॥
टहलते हुये मिल जाते, घरघर के आदर्श जहाँ
बैठी मेरी माँ मिल जाती, गुजरी हुई द्वार मेरे॥
बचपन के मीत मिलते, भूलेबिसरे गीत मिलते
मिलते तालतलैया मानों, भीगे बदन बहार मेरे॥
डाल पकड़ गाजाती कजरी, बंसवारी की बाँसरी
टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी भी, मुड़ जाती सुन पुकार मेरे॥
हरदिल-दिलसे बातें करते, लोरी गाती सुरातरी
रस्मेंरस्म निभा जाती, मिल जाते त्योहार मेरे॥
चौथतीज की रीत निराली, पूस-माघ इतरा जाते
अगहन गवन करा लाए, मिलजाते संस्कार मेरे॥
मौका पाए मीतप्रीत, मस्ती मज़ाक कटाक्ष लिए
अलबेले दृश्य उठा लाते, संग आते चित्रहार मेरे॥
कुछेकपल रुक पाता हूँ, अपनों के गलियारों में
नजर बचाके आगे आते, जुड़े हुए अधिकार मेरे॥
— महातम मिश्र
बढ़िया ग़ज़ल !
सादर धन्यवाद आदरणीय विजय सर जी , हार्दिक आभार
बढ़िया ग़ज़ल !