बड़ा काम कैसे होता है, पूछा मेरे मन ने
उस दिन भोपाल जाने हेतु सुबह की पहली ट्रेन से निकलना तय हुआ। प्रातः 7 बजे से पूर्व में ट्रेन में बैठ गया। डिब्बे में काफी जगह थी। तभी देखा एक वृद्ध व्यक्ति दो बड़े-बड़े झोले टांगे डिब्बे में चढ़े। धोती, कुर्ता, सिर के पूरे बाल सफेद और वेसी ही श्वेत हल्की -हल्की दाढ़ी। भाल पर लगी बड़ी-सी गोल बिंदी उनके व्यक्तित्व को और भी प्रभावशाली बना रही थी। उन्होंने वे झोले उस डिब्बे के मध्य वाले द्वार के पास पहली ही सीट पर रख दिए और दोनों झोलों के मूंह खोलकर इस प्रकार रख दिए कि उनमें रखी पुस्तकें दिखने लगीं। कोई उस सीट पर बैठने का प्रयत्न करता तो वे बाबा कहते-” भैया किसी और सीट पर बैठ जाईए। यहां मेरी पुस्तकें बैठेंगी। बहुत जगह है आगे कहीं बैठ जाएं।”
मेरा पूरा ध्यान हाथ में पकड़े समाचार पत्र से हटकर उन पर ही टिक गया था। वे बोले-” मित्रों आप सबको दशहरे की शुभकामनाएं। हम सबने एक रावण मैदान में जलाकर मार दिया, लेकिन क्या हमारे मन में छुपे रावण को हम मार पाए? उसे मारने कोई राम नहीं आएंगे। उसे मारने के लिए हमें सहयोग लेना होगा इन पुस्तकों का। इस दीपावली पर एक दीप इन पुस्तकों के प्रकाश का जलाईए। ये थैले यहीं रखे रहेंगे। मैं दूसरे डिब्बे में ऐसे ही झोले रखकर आता हूँ। आप में से कोई भी इन पुस्तकों को निकालकर देख सकते हैं। मैं देवास में आऊंगा आपसे फिर बात करने।”
इतना कहकर वे उतरकर चले गए। कुछ लोग नाक सिकोड़कर कह रहे थे- “धंधा करने के नए-नए तरीके निकाल लेते हैं ये बेचने वाले भी।”
मैं फिर समाचारों में डूब गया। देवास में वे सज्जन पुनः आए। उनकी आवाज एक बार फिर गूंजने लगी- “किस-किसने ये पुस्तकें देखने के लिए ली हैं, कृपया हाथ खड़ा करें मैं आपके पास तक आता हूँ। ” एक बहन ने एक पुस्तक ली थी। केवल उसने ही हाथ खड़ा किया। बाबा प्रसन्न हो गए- “अरे ! वाह मेरी बिटिया ने हिम्मत की है। कौन-सी पुस्तक ली है? वाह बेटे ये पुस्तक बहुत अच्छी है। तेरा जब विवाह होगा तो इसका ज्ञान तेरी संतोनों को श्रेष्ठ संस्कार देने के काम आएगा। इसकी कीमत वैसे तो छः रुपये है लेकिन तेरे पास भी खुल्ले नहीं हैं और मेरे पास भी नहीं। ऐसा कर पांच रूपये ही दे दे। अब इतनी कम मूल्य की पुस्तकें सबके आकर्षण का केन्द्र बन गई। कई लोगों ने पुस्तकों को देखना और खरीदना प्रारंभ कर दिया। मैं देख रहा था, वे किसी को कुछ राशि बच जाने पर उससे अधिक मूल्य की पुस्तक दे देते थे।
इस बीच एक युवक ने पूछा शेर, शायरी की पुस्तक है क्या ? शेरो-शायरी की पुस्तक है लेकिन सच कहूं इसकी कीमत मात्र 4 रूपये हैं और यह 10 रूपये में बिकती है। इसमें मैं कोई छूट भी नहीं देता। मेरी मानो तो ये अन्य गीता प्रेस की पुस्तकें खरीदो। बहुत अच्छी भी है और स्वाध्याय की आदत भी बनेगी।” युवक पर कोई असर नहीं हुआ। उसने वही रोमांटिक शायरी की पुस्तक ली। बाबा के चेहरे पर 10 रूपये लेकर भी कष्ट की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
वे फिर बोले-” किसी के पैसे मेरी ओर बाकि तो नहीं रह गए आप बता दें मैं लौटा दूंगा। क्या करूं वृद्ध हूँ ना याद नहीं रहता। अब मैं उतर रहा हूँ। आप सबसे निवेदन है अच्छा साहित्य पढ़ें और सकारात्मक सोचें, सकारात्मक करें। अरे हॉं मेरी वो बेटी कहां है जिसने सबसे पहली पुस्तक ली थी। ” झोले से एक पुस्तक निकालकर वे उसके पास पहुंचे और देते हुए बोले- “बेटी ये मेरी ओर से रख लो। आदर्श गृहस्थी के निर्माण में ये काम आएगी। इसके पैसे नही लूँगा। ये मेरा आशीर्वाद समझ कर रख ले।”
वे झोलों को मुश्किल से खींच कर दरवाजे तक ले आए। मैं उठकर उनके पास पहुंचा। “बाबा आप कहां रहते हैं?” मैने पूछा। वे बोले-“खास रहने वाला शुजालपुर का हूँ लेकिन अब इन्दौर ही रहता हूँ।” इससे पूर्व क्या करते थे?” प्रश्न के उत्तर में बोले- ” एच. आर. डी. ( मानव संसाधन विभाग) से सेवानिवृत्त हुआ हूँ। केन्द्र सरकार पेन्शन खूब देती है उसी का सदुपयोग करता हूँ।”
“आपका शुभ नाम जान सकता हूँ?” मैने संकोच से पूछा। वह तेजोमयी चेहरा एकक्षण को शून्य में ताकता रहा और धीरे से बोला-” डॉ. दीपेश्वर!” मुझे भौंचक छोड़ वे उज्जैन के प्लेटफार्म पर उतर चुके थे।
मैं सोच रहा था, और कानों में आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी की पंक्तियां गूंज रही थी- ” बड़ा काम कैसे होता है पूछा मेरे मन ने…”
मेरे हाथों में सोमवार का अखबार था। प्रथम पृष्ठ अपने चिरपरिचित ‘ सकारात्मक सोमवार‘ के रूप में था। मन कह रहा था-” केवल पढ़ने से नहीं कुछ करने से ही काम बनेगा।”
— डॉ विकास दवे
बहुत प्रेरक संस्मरण ! डॉ दीपेश्वर को विनम्र प्रणाम !
बहुत प्रेरक संस्मरण ! डॉ दीपेश्वर को विनम्र प्रणाम !
वह भाई साहब क्या बात है। जीवन जीने के लिए तो सभी जीते है, पर जीवन का भरपूर उपयौग कर लोगो को जाग्रत करने वाले ही मनुष्य योनी में जीवन पाने की सार्थकता की पूर्ती करते है। आती उत्तम ।