ग़ज़ल
अब मिटें बीच के फासले कम से कम
हों शुरू प्यार के सिलसिले कम से कम
दिल में थी बात जो तुम वो कहते हमें
फिर न रहते कोई भी गिले कम से कम
जान भी आपके नाम कर जाते पर
नज्र से प्यार की देखते कम से कम
उँगलियाँ जो उठाते सभी पर उन्हें
कोई दिखला भी दो आईने कम से कम
जिन्दगी का सफर यूँ न खलता हमें
मिल ही जाते अगर काफिले कम से कम
हक दिया होता गर प्यार में हमको तो
हम मिटाते सभी उलझने कम से कम
टूट जाते कहीं राह में हारकर
शुक्र है मिल गए रास्ते कम से कम
उनको रहता “रमा” गर जरा भी यकीं
बीच रहती नहीं रंजिशें कम से कम
रमा प्रवीर वर्मा …..
वाह वाह ! बहुत खूब !!