कविता : उपेक्षित टीवी
पहले पहल
जब था मान उसका
उस मध्यवर्गीय घर में , था उसमें भी माद्दा
जब दर्शकों की भीड़
खींच लाने का।.
समझा जाता था
उसे तब घर के एक
सदस्य की तरह,
रोज मखमली कपड़े से
पोंछा जाता था
उसकी काया को,
भक्तिमय होकर
जब
महाभारत और रामायण. सीरियल की
एक-एक कड़ी
देखता था पूरा गाँव
होकर इक्टठा
एक ही छत के नीचे,
जब अपने पूरे
शवाब पर था वो
बहुत कद्र पाता था,
परिवार के सदस्यों के
साथ-साथ
गाँव के लोगों को भी.
बाँध रखा था उसने
प्रेम व भाईचारे के
एक सूत्र में. ,
मगर ज्यों ज्यों
समय आगे बढ़ा, घटने लगा मान उसका, बहुओं के घर में आते ही आने लगे नए नए माॅडल के टीवी घर में, अच्छे-अच्छे, मँहगे-मँहगे, अब हर घर के हर कमरे में टीवी मौजूद है , टीवी देखकर लगने वाले ठहाके, अब सीमित हो गए हैं हर कमरे की चारदीवारी के भीतर तक ही, वो उपेक्षित पुराना टीवी आज पड़ा है स्टोर रूम के एक कोने में, देख रहा है अपनी बदहाली के दिन, धूल की एक मोटी परत आतुर है दफन करने को उसकी धुंधली सी स्मृति को उसके मालिक के जेहन से, मिलते ही उचित दाम किसी कबाड़ी को, बेच दिया जाएगा उसे, वह बिता रहा है अंतिम दिन अपने गिन गिनकर, खैर …यह तो मात्र टीवी है, यहाँ मानव उपेक्षित समझा जाता है
जब उससे लाभ आना
बंद हो जाता है..
— मनोज कुमार शिव
बढ़िया !
thank u sir