कविता

स्त्रीत्व

दर्द है गहरा
स्त्रीत्व का
या कोमलता पाने का
क्या जानोगे तुम
कभी गए ही नहीं तुम
उस जहां में जहाँ
होता है हिसाब
तेरी मेरी सरहदों का
और अंदरुनी जंग में
उतर आती है रक्तिमता
नजरो में…
और
रहती है जहाँ
हया की नाजुक अदा
जिसका अस्तित्व
…सर पे रखे बोझ से
ज्यादा कुछ भी नहीं
शायद..
कुछ और न समझा सके खुद को
उसी बस्ती उसी जहाँ में
साथ निभाती है नजाकत से
और लहलहाती है…
……आँसुओ की धान
गमो की फसल
दर्द की बालियां
और लहराता है आँचल
…ढकता सा मुझे
और सींचता है जिसे
मेरे दिल का समंदर….
काश कभी मिल पाते
उस खेत खलिहान से
और देख पाते तेरीे स्वार्थी
दुनिया के परे भी
….एक जहाँ है…
जो खुद को खुद में जिन्दा
रखने की जद्दोजहद में
लड़ रहा है खुद से
…तुमसे और
तुझमे समाये समाज से….

निर्मला”मुस्कान”

निर्मला 'मुस्कान'

निर्मला बरवड़"मुस्कान" D/O श्री सुभाष चंद्र ,पिपराली रोड,सीकर (राजस्थान)