यम-यमी का वैदिक स्वरूप
प्रत्येक मनुष्य समाज को एक नई दिशा व दशा देने की पूर्णरूपेण योग्यता रखता है।अब दिशा व दशा कैसे हो, यह दिशा व दशा दिखाने वाले पर आश्रित है, वह अपने ज्ञान के आलोक से मार्गप्रशस्त करता है अथवा ज्ञान के आलोक के अभाव में सत्य मार्ग से हटा कर असत्य मार्ग का अनुसरण कराता है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशवाॅं सूक्त यम-यमी सूक्त है। इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृध्दि सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक अथर्ववेद (18/1/1-16) में दृष्टिपथ होते हैं, अब विचारणीय है कि- यम-यमी क्या है? अर्थात् यम-यमी किसको कहा? इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भाई-बहन का इतना अश्लीलता परक अर्थ करके पाश्चात्य विद्वानों तथा पाखण्डियों को वेदों पर आक्षेप करने का अवसर प्राप्त करा दिया। इस अश्लील परक अर्थ को कोई भी सभ्य समाज का नागरिक कदापि स्वीकार नहीं कर सकता है।
प्रो. मैक्समूलर के मत में यम-यमी कोई मानवीय सृष्टि के पुरुष न थे किन्तु दिन का नाम यम और रात्री का नाम यमी है इन्हीं दोनों से विवाह विषयक वार्तालाप है। इस कल्पना में दोष यह है कि जब यम और यमी दोनों दिन और रात हुए तो दोनों ही भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं। इससे यहाॅं इनको रात्री तथा दिन रूप देना सर्वथा विरुद्ध है।
अनेक भारतीय लेखकों ने भी इन मन्त्रों के व्याख्यान को अलंकार बनाकर यम-यमी को दिन-रात सिद्ध किया है, इनके मत में भी कथा सर्वथा निरर्थक ही प्रतीत होती है, क्योंकि न कभी दिन-रात को विवाह की इच्छा हुई और न कोई इनके विवाह के निषेध से अपूर्वभाव ही उत्पन्न होता है। आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वानों को भी इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं।
आचार्य यास्क जी ने ‘यमी’ का निर्वचन लिंभेद मात्र से ‘यम’ से माना है। ‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात् यम को यम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों को नियन्त्रित करता है। पं. चन्द्रमणि जी के अनुसार ‘यम’ प्राण को कहते हैं, क्योंकि यह जीवन प्रदान करता है। (निरु. चन्द्रमणिभाष्य-10/12) निरुक्त भाष्यकर्ता स्कन्दस्वामी जी ने यम-यमी को आदित्य और रात्रि मानकर (10/10/8) मन्त्र की व्याख्या की है। स्वामी ब्रह्ममुनि यम-यमी को पति-पत्नी, दिन-रात्री और वायु-विद्युत् का बोधक मानते हैं। पं. भगवद्दत्त जी ने यम को अग्नि, आदित्य, वायु, मध्यम तमोभाग तथा यमी से पृथिवी और माध्यमिका वाक् अर्थ ग्रहण किये हैं।
चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने अपने निरुक्त परिशिष्ट में सम्पूर्ण यम-यमी सूक्त की व्याख्या की है, जो भाई-बहन परक है, किन्तु सहोदर भाई बहन न दिखा कर सगोत्र दिखाने का प्रयास किया है।
किन्तु विभिन्न तत्त्वविद्निष्णातों के भाव को शायद मैं ऋषिवर देव दयानन्द के विचारों से जोड़ने में असमर्थ हो रहा हूँ, अतः मैं ऋषिवर के पथ का अनुसरण करता हूँ, ऋषि को समझने का प्रयास करता हूँ. यद्यपि ऋषिवर ने इस सूक्त का भाष्य नहीं किया है, पुनरपि सत्यार्थ-प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास के नियोग प्रकरण में इसी सूक्त के मन्त्र को प्रस्तुत किया है। ऋषिवर की उन पंक्तियों को प्रमाण रूप से यहाॅं उद्धृत करना अनिवार्य ही नहीं अपितु प्रसांगिक भी होता है।
‘‘जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा कर क्योंकि अब मुझसे सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी।“ (चतुर्थसमुल्लास, सत्यार्थ-प्रकाश)
ऋषिवर की इन पक्तियों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस सूक्त में पति-पत्नि का संवाद है न कि भाई-बहन का। हम स्वामी दयानन्द कि इन पक्तियों को इसलिए और भी प्रमाण रूप में स्वीकार करेंगे क्योंकि दयानन्द जी एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। जिनके समान वेदों का भाष्य, मन्त्रों का यथार्थ स्वरूप किसी अन्य का प्रतीत नहीं होता।
अब हम व्याकरण कि दृष्टि से यम-यमी शब्द को जानने का यत्न करते हैं। महर्षि पाणिनि के व्याकरण के अनुसार ‘पुंयोगादाख्याम्’ (अष्टा.-4/1/48) इस सूक्त से यमी शब्द में ङीष् प्रत्यय हुआ है। इससे ही पत्नी का भाव द्योतित होता है। यदि यम-यमी का अर्थ भाई-बहन लिया जाता तब यम-यमा ऐसा प्रयोग होना चाहिए था, जबकि ऐसा प्रयोग नहीं है। जैसे हम लोकव्यवहार में देखते हैं कि आचार्य की स्त्री आचार्याणी, इन्द्र की स्त्री इन्द्राणी आदि प्रसिध्द है न कि आचार्याणी से आचार्य की बहन अथवा इन्द्राणी से इन्द्र की बहन स्वीकार की जाती है। ऐसे ही यमी शब्द से पत्नी और यम शब्द से पति स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् यम की स्त्री यमी ही होगी।
सायण के यम-यमी संवाद भाई-बहन का संवाद कदापि नहीं हो सकता। ये तो सायण ने अपनी इच्छानुसार ही कल्पित अर्थ को जन्म दे दिया है। जिसको हम आज भी स्वीकार करते चले आ रहे हैं। इस अर्थ के कारण पाश्चात्य विद्वानों के आक्षेप तथा विधर्मियों के विवाद सदैव हम सबके समक्ष उपस्थित होते रहे हैं। आर्य विद्वान् जो सायण आदि से प्रभावित हुए हैं। वे भी वैसा ही अर्थ कर गए। भाई-बहन का ऐसा पशु तुल्य व्यवहार वैदिक कदापि नहीं हो सकता। मानव समाज में शिष्टाचार और सभ्यतापूर्वक सम्बन्धों की परम आवश्यकता है। ऋषिवर देव दयानन्द ने जो तिरोहित वेद ज्ञान की ज्योति को पुनर्जीवित किया है। उसके प्रकाश में जो पथभ्रष्ट हो रहे हैं, वे निश्चित ही अंधकार से संलिप्त हैं।
इस सूक्त के ग्यारहवें मन्त्र में भ्राता तथा स्वसा नाम दिये गये हैं। जिसको पढ़ने से कोई भी जन पूर्वापर प्रसंग को समझ सकता है। इस पूर्वापर प्रकरण को देखकर मन्त्रार्थ पर विचार-विमर्श करें तो स्वतः ही भ्रान्ति का निवारण हो जाएगा।
आ घा तो गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्।। (10/10/10)
इस मन्त्र के माध्यम से सन्तति उत्पत्ति में असमर्थ पति अपनी पत्नी को कहता है कि हे सौभाग्यशालिनी! तू अन्य वीर्यवान् पुरुष के बाहु का सहारा ले और इस प्रकार सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ मुझ पति से अतिरिक्त पति की इच्छा कर।
इस मन्त्र के भाव से यथार्थ स्पष्ट हो जाता है कि इन मन्त्रों में पति-पत्नी परक अर्थ का ही ज्ञान करना चाहिए। क्योंकि इससे अगले ही मन्त्र-
किं भ्रातासद्यदनायं भवाति किमुस्वसा किमुस्वसा यर्ॠानटी तिर्निगच्छात्।
काममूता बह्वेय तद्रपामि मे तन्वं सं पिपृग्धि॥ ( 10/10/11)
इन मन्त्र की व्याख्या में पत्नी पति की भर्त्सना करती हुयी कहती है कि- क्या अब मैं तुम्हारी पत्नी न होकर बहन हो गई हूँ। क्या तुम मेरे पति न होकर भाई हो, जो मैं अन्यत्र चली जाऊॅं।
इससे अगले मन्त्र अर्थात् 12 वें मन्त्र में यम के उत्तर से सम्पूर्ण सूक्त की यर्थाथता समझी जा सकती है। मन्त्र इस प्रकार है –
न वा उ ते तन्वा सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत्।। (10/10/12)
इस मन्त्र में पति कहता है कि – “जब मैं असमर्थ हो तुझे दूसरे पति से नियोग की आज्ञा दे दी तो तू मेरी बहन समान हुयी और मैं तेरा भाई समान। अतः मैं तुझे आदेश देता हूँ कि तू मुझ से अन्य श्रेष्ठ पुरुष का समागम कर।” जो सायण आदि ने भाई-बहन परक अर्थ किया है, शायद वह इस मन्त्र भाव को न समझ कर किया होगा।
इस सूक्त में अलंकारिक वर्णन किया गया है। यह सर्वथा ज्ञात रहे कि यम-यमी मानुषी सृष्टि के स्त्री या पुरुष नहीं हैं, यहाँ नियोग प्रकरण को समझाने के लिए यम-यमी को पति-पत्नी का रूप दिया गया है। यह सम्पूर्ण कृत नियोग पध्दति का है। सामान्य स्थिति के लिए यह पध्दति नहीं है। नियोग के समस्त नियम-उपनियम व अधिकार स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ सम्मुल्लास को देखें। पूर्वापर मन्त्रार्थ की संगति से स्पष्ट हो जाता है कि भ्राता तथा स्वसा इन दोनों शब्दों का वहॉं पर क्या भाव है और सम्पूर्ण सूक्त की संगति पति-पत्नी परक मन्त्रार्थ ही सत्य ही प्रतीत होता है अन्यार्थ तो बस लोगों की कल्पनामात्र ही प्रतीत होती है।
बहुत अच्छा लेख. इससे बहुत सी भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है. यदि फिर भी कोई न समझे तो उसका दुर्भाग्य !
बहुत अच्छा लेख. इससे बहुत सी भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है. यदि फिर भी कोई न समझे तो उसका दुर्भाग्य !