ग़ज़ल
निगाहों में किसी की चंद-पल रुक कर चला आया
परिंदा क़ैद का आदी नहीं था, घर चला आया
सितमगर की ख़िलाफ़त में उछाला था जिसे हमने
हमारे आशियाने तक वही पत्थर चला आया
सभी क़समों, उसूलों, बंदिशों को तोड़कर,आखिर
मैं अरसे बाद आज उसकी गली होकर चला आया
दनादन लीलता ही जा रहा है कैसे हरियाली
कि चलकर शह्र से अब गाँव तक अजगर चला आया
उतरकर गोद से माँ की, जहाँ बचपन गुज़ारा था
वो मेरा गाँव ख़्वाबों में मेरे अक्सर चला आया
बिखर जाने को था जज़्बात की आंधी में,पर ज्यों ही
तुम्हारा नाम आया, बज़्म से उठकर चला आया
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~जय~