कविता : अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा
विचारों का द्वन्द
तो सनातन सत्य है
मगर जिस भूमि में लिया है जन्म
पले – बढ़े हो जिसके अन्न – जल से
उसी भूखंड के टुकड़े – 2
कर देने के मनसूबे पालना
फसल है किसके द्वारा
बोये हुए बीजों की ?
आम आदमी की कमाई से
अर्जित हो रहे टैक्स
और उसी से अनुदान प्राप्त
शिक्षण संस्थानों में
स्वायता के नाम पर
ये मखौल क्यों ?
जेल से छूटते ही
तुम्हे इतराता देखकर
देश हतप्रभ है
कर चुके हो तुम तुलना
स्वतः ही खुद की
भगत सिंह,राजगुरु और
अश्फाक उलाह खान जैसे
अनेक स्वतंत्रता सेनानियों से
टीआरपी बढ़ाने की रेस में
प्रसारित हुए हैं तुम्हारे रुग्ण विचार
टीवी चैनलों पर भी l
हे कन्हैया, ज्ञात है सबको
कि तुम्हारा राजनैतिक भविष्य
उज्वल है अब
खिल गई थी तुम्हारी वांछे
इस प्रश्न मात्र से ही कि
क्या आओगे राजनीती में ?
मगर उनका क्या
जो हैं अभावग्रस्त यथार्थ में ही
और बुन रहे है सपने
एक बेहतर भविष्य के
शिक्षा प्राप्ति के ही बलबूते पर l
देश के संबैधानिक पद पर
बैठे हुए व्यक्ति के लिए
आदरसूचक शब्दों के इस्तेमाल पर
तुम्हे होता है अफ़सोस l
तुम्हें नहीं दिखता है जवानों का
सरहद पर शहीद होना
लगा रहे हो लांछन
उन्हीं देश के रक्षकों पर
जिनकी बदौलत हम सब
चैन की नींद सोते हैं l
कोसते है नित दिन
लोकतंत्र और उसके मूल्यों को
प्रदर्शन कर तहस – नहस कर देते हैं
बेशकीमती सम्पतियों को भी l
क्या इस देश को आश्रित
होना होगा अब
उदण्ड और मौका परस्तों के
खोखले आदर्शवाद पर ?
क्या यही स्वतंत्रता है
या फिर है यह
अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा ?
— मनोज चौहान
(09 फरवरी, 2016 को हुए जेएनयु प्रकरण को लेकर कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद उसके जमानत पर छूटने पर दिए भाषण एवं टीवी साक्षात्कारों पर प्रतिक्रिया स्वरुप लिखी गई रचना)
अच्छी रचना !
हौसला अफजाई के लिए आभार सर ….!