कविता : दर्पण
झूठ न बोले
दर्पण
हर सच्चाई को उगले
औकात हरेक को दिखाए
निहारो रूप
जब -जब तुम
दर्पण में
रहस्य अनेकों खुल जायें
परतों मे छिपी
बेईमानी उजागर हो जाये
सच है
जहाँ सुंदर बनाये
मन की कलुषता भी
दिखलायें
भाव सुंदर जगाये
चेहरा को मेरा
दमकाएँ
प्रेमी जन को उकसाएँ
मन की बगियाँ में
प्यार की हरी -भरी
पौध उगाये
जब -जब देखूँ मैं
आयना
खिल-खिल जाऊँ
बन के पंछी दूर गगन का
हर डाल-डाल
पात -पात मै बैठ आऊँ
— डॉ मधु त्रिवेदी