कविता : फाग और श्रृंगार
अप्सरा सी सजी है सुन्दरी
कर सोलह श्रृंगार है खडी
देह को वर्ण है गौर
बड़ी लुभावनी सी लगी
गले में इन्द्रधनुषी माला सजी
देखे बाट प्रिय की
महीना है फाग का
क्यूँ न खेलूँ फिर फाग
कर रही हूँ मैं इन्तजार
खेलूँ मैं प्रिय के साथ
आए याद खेली होली
रंग गुलाल पुराने न पड़े
पडी जो पिचकारी की फुहारें
श्रृंगार मेरा दमक उठा
तर -तर हुई ऐसी हुई
प्रेम के रंग में
सुधि -बुधि खो बैठी मै
चार चाँद लगाये श्रृंगार में
जब फाग पिया के साथ आये
दूर हो जायें थकान
हिय को मेरे फाग भाए
— डॉ मधु त्रिवेदी
वाह वाह !