कहानी : बाँग देता नहीं मुर्गा
रोज-रोज, सुबह ही सुबह, जोर-जोर से बाँग देकर पुरे गाँव को जगाने वाला मुर्ग़ा दो दिन से न दिखाई दिया नाहीं सुनाई पड़ा। वैसे भी अब सबकी सुबह अपने-अपने अनुसार हो ही जाती है मुर्गे की किसे पड़ी है। जरुरत ही सबकी यादें ताजा करती है, गांव के एक बच्चे ने अपने हमउम्र से पूछा, अरे रमेश तूने उस बड़े वाले लाल-काले मुर्गे को देखा क्या?…….परीक्षा का समय है और वह न सुबह जगा रहा है न ही भोर बुला रहा है। मेरी तो किस्मत ही ख़राब हैं, पूरा साल खेल-कूद में बीत गया, इसी का भरोशा था, सोचा था रोज-रोज पढकर परीक्षा दे लूंगा और किसी तरह तिपहिया (III) सर्टिफिकेट ले लूंगा। लगता है बीमार हो गया है, कहीं दिखाई भी नहीं देता, चल जाकर उसकी खबर लेते हैं।
उसकी बात सुन रमेश झल्लाकर, आग बबूला हो गया, मानों उस मुर्गे से उसकी पुस्तैनी दुश्मनी हो। अच्छा हुआ बीमार हो गया, मर जाता तो और भी अच्छा होता, चिल्ला-चिल्लाकर सुबह की नींद ख़राब कर देता है। बाबा रोज ताना देते हैं मुर्गे से भी सीख नहीं लेता, नालायक हो गया है, सुबह का उठना अमृत पीना है, सूरज सर पर आएगा तभी इसकी नींद खुलेगी, वगैरह, वगैरह, बड़ा होकर हमें भी कालेजों में हल्ला ही तो करना है पढाई और डिग्री से किसको नौकरी मिलती है, सबकी कुकुरकुं सुन कान पक गया है। सर्टिफिकेट की क्या जरुरत नारा लगाओ, पैसा कमाओ, गुंडागिर्दी करो, नाम कमाओ,…….परीक्षा की चिंता छोड़, मेरे पापा की बहुत पहचान है, सेटिंग हो गई है, मेरा तो सेकण्ड डिवीजन पक्का, तूं भी अपनी माँ से बात कर पांच हजार में तेरा भी रिजल्ट निकल जायेगा। अगले साल कालेज में दोनों साथ-साथ मटरमस्ती करेंगे, छात्रसंघ का चुनाव लड़-लुङाकर नेतागीरी में नाम लिखा लेंगे और मजा करेंगे।
महेश को भी अपने पढाई से ज्यादे विश्वास इसी में लगा और घर पहुंचकर अपनी माँ से परीक्षा की तैयारी का पूरा विवरण सुनाकर आश्वस्त हो गया। रात बीती, फिर सुबह हुई और महेश भी पास हो गया। पर उसके मन में मुर्गे की खबर उसे शामू की मंडई तक खिंच ले गई, अरे शामू काका आप का मुर्गा बीमार है क्या, दिखाई नहीं देता। शामू काका हंसते हुए बोले क्या करेगा, मुर्गे को, खायेगा क्या, तुझे नहीं पता परीक्षा का समय है जा पढाई लिखाई कर, परीक्षा पासकर। प्रधान जी ले गए स्कुल में साहब लोगों की दावत है आवभगत नहीं करेंगे तो तुम लोग पढाई लिखाई से महारत हांसिल कर पाओगे क्या?….. जा स्कूल में जाके देख अबतक तो उबल भी गया होगा, मसाले वाला मुर्ग-मुसल्लम, एक हजार मिला है उसको हलाल करने की कीमत। महेश अवाक हो गया मानों उसका अरमान ही उजड़ गया, कुछ बोल तो न पाया पर उसका दयामन आहत जरूर हो गया, भारी कदमों से स्कूल की ओर बढ़ा और खून से भीगे हुए, मख्खी भिनभिनाते पंखों को देखकर चकरा गया, डरा हुआ आगे बढ़ा और रमेश के पापा, प्रधान जी के हाथों में मुर्गे की एक टांग, जो उनके दांतो से कबड्डी खेल रही थी देख सन्न रह गया।
आँखें विश्वास करें इतने में प्रधान जी की भद्दी आवाज से चौंक गया। “अरे महेश बेटा अच्छा हुआ तूं यहाँ आ गया, चल यह सब साफ़ सफाई कर दे और साहब लोगों की जमकर सेवा कर, सकझ ले तेरे परीक्षा की यही तैयारी है.” इतना कहकर झूमते हुए प्रधान जी रात बिताने अपने दरबे में चले गए। अब बारी महेश की थी जिसे पूरी रात साहब लोगो की सेवा में जबह होना था। समय की बात थी महेश ने रमेश को भी बुला लिया और पूरी एक रात में दोनों ने जीवन के सारे गुण सीखकर मास्टर बन गए। कइयों को परीक्षा पास करवाकर इलाके में मसहूर हो गए, महीने भर स्कूल में बच्चों और माँ-बाप का तांता लगा रहा, दशहरा का मेला फीका पड़ गया और रावण चहकता रहा। रिजल्ट लिए विजयादशमी भी आई और गांव लड्डू खाकर मस्त हो गया।
कुछ समय बाद पता चला कि महेश और रमेश किसी कालेज के बड़े नेता हो गए हैं और खूब नाम कमा रहे हैं। जनता है किसी का बकाया नहीं रखती, एक कदम चलों, हजार कदम तैयार मिलेंगे, सूद समेत वापस कर देती है भोली जनता, जैसे मुर्गे ने शामू काका को अपने परवरिस की रकम वापस कर दी……और कइयों को परीक्षा भी पास करवा दिया…….
— महातम मिश्र
करारी कहानी !
सादर धन्यवाद आदरणीय विजय सर जी, कहानी आप को पसंद आई लेखन धन्य हुआ, आभार सर