कहानी : तृप्ति
कितनी गहमागहमी है हर तरफ़। हर कोई अपनी ही धुन में, किसी भी दिशा में भागता हुआ सा। स्टोव की लाल लपटों के ऊपर रखे बर्तन मे, उबलती चाय की भाप, इस सर्दी के मौसम में दूर से भी कुछ गर्माहट दे गयी। खोमचे वाले से चाय का गिलास लेकर मैंने पर्स से २० रुपये का नोट निकालकर उसे थमा दिया।
“बहिन जी! २ समोसे भी दे दूँ?”
इससे पहले कि मैं कुछ कहती उसने झटपट समोसे दोने में रखकर, उन पर हरी चटनी डालकर, मुझे थमा दिए। हल्की सी ठण्ड में चाय के साथ चटपटे समोसे जिह्वा को आनंद दे रहे थे।
“बीवी जी! बीवी जी! ओ बीवी जी!”
पलटकर देखा तो मेरे दाहिने तरफ़ एक छोटा-सा बच्चा, मेरे आँचल का कोना पकड़कर मुझे पुकार रहा था। तन पर मैले से कपड़े थे, जिन पर कहीं-कहीं पैबंद भी लगे हुए थे जैसे कि शीत हवा के प्रवेश को रोक रहे हों। उस बच्चे की आँखों में भरपूर जीवन की चमक थी जो उसके यथार्थ से एकदम विपरीत प्रतीत होती थी। कोई किस तरह इतनी कठिन परिस्तिथियों में भी भरपूर जीवन जीने की चाहत पाल सकता है। आश्चर्य के साथ- साथ एक प्रसन्नता का भाव भी मुझे कहीं भीतर तक छू गया। मैं देख सकती थी कि उसके नंगे पैरों के तलवों के नीचे की ठंडी ज़मीन भी उसके हौंसले को ठण्डा करने में असमर्थ रही थी।
“एक खिलौना ले दो न बीवी जी”, सहसा मेरी तन्द्रा भंग हुई।
“खिलौना ले दो ना”!!!
मुझे लगा मेरे सुनने में कुछ गलती हो रही है। शायद वो कह रहा है कि कुछ पैसे दे दो।
परन्तु नहीं, वो तो वही रट लगाए था।
“खिलौना ले दो न”
“चलो तुम्हें कुछ खिला देती हूँ। बोलो क्या खाओगे?
समोसा, कचौड़ी, या पूरी-सब्ज़ी, बताओ?”
“नहीं! मुझे कुछ नहीं खाना। मुझे बस वो खिलौना ले दो”, कहकर उसने अपने नन्हे हाथ की उँगली से सामने खड़े खिलौने वाले की तरफ़ इशारा किया।
मोटर, कार, गेंद, चकरी, बाजा, गुड्डा- गुड़िया, गुब्बारे, बांसुरी, टेलीफ़ोन, दूरबीन…. और भी न जाने कितने ढेर सारे खिलौने लेकर खड़ा था खिलौने वाला।
मैंने एक बार फिर उस मासूम बचपन के चेहरे को देखा जो खाने की चीज़ों को नहीं अपितु खिलौनों को ललचाई नज़र से देख रहा था। एकबारगी उसे देख अपना बचपन स्मरण हो आया कि कितने भी खिलौने मिल जाएँ पर खिलौनों की चाह कभी कम नहीं होती थी। जितनी बार बाबूजी के साथ बाजार जाओ, हर बार एक नया खिलौना लेने की ज़िद तभी छूटती जब खिलौना हाथ में आ जाता था।
“कौन सा खिलौना चाहिए बोलो?”, कहकर मैं खिलौने वाले की तरफ बढ़ी ही थी कि अचानक उस मासूम के कदमों में बिजली सी फ़ुर्ती आ गयी और वो पलक झपकते ही खिलौने वाले के पास खड़ा अपना पसंदीदा खिलौना निकलवा रहा था। अनायास ही एक मधुर स्मित मेरे मुझ पर बिखर गयी। उसे उसकी पसंद का खिलौना दिलवाकर और फिर उसे कुछ नाश्ता खिलाकर मैं अपनी ट्रेन की ओर बढ़ी जो अब अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करने ही वाली थी।
अपना सामान बर्थ के नीचे जमाकर, मैं अपनी सीट पर बैठ गयी और चलती ट्रेन से पीछे छूटते स्टेशन को देखने लगी। तभी वह बच्चा मुझे खिड़की से
बाहर दिखा जो कि मुझे हाथ हिला हिलाकर विदा कह रहा था। मैं देख रही थी उसकी आँखों की चमक जो अब और भी बढ़ गयी थी। ख़ुशी और तृप्ति उसके चेहरे से झलक रही थी। और सबसे अनमोल भावना जो मैं उसके चेहरे पर पढ़ पायी, वो थी मेरे लिए असीम व निश्छल स्नेह!
समझने में असमर्थ थी मैं कि सही मायनों में कौन तृप्त हुआ था, मैं या वो?
यक़ीनन मैं ही!