डाॅ. आंबेडकर : एक विचार
‘‘मैं केवल भारतीय रहूँगा। मेरी पहचान केवल एक भारतीय के रूप में होनी चाहिए। ….बस मंै इसी बात के लिये मर जाना चाहता हूँ। मैंने देख लिया है कि जब तक हम अपने को हिंदु, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, यहुदी जैसे धर्म संबोधनो में बांटते रहेंगे तब तक हम आदमी नही बन सकते। तब तक इस पृथ्वी पर शांति नही हो सकती।‘‘ ‘‘इस देश में न कभी कोई भारतीय रहेगा और न कोई आदमी, यहाँ रहेंगे धर्म जातियाँ संप्रदाय…..। और एक जाति का आदमी दूसरे जाति के आदमी से घृणा करेगा। सन् 47 का पाकीस्तान तो एक बना है। मुझे लग रहा है कि जिस तरह के यहाँ देश-सेवक और नेता पैदा हो रहे हैं, वे हजारों ‘जातिस्तान‘ पैदा कर देंगे। वामण बनिये को नफरत से देखेगा। बनिया राजपूत से घृणा करेगा। राजपूत जाट को दबोचेगा। शूद्र इन सबको। ……. मतलब एक जातिवाला दूसरी जातिवाले को अजगर की तरह निगलने की चेष्टा करेगा।‘‘ मैं ने उपरोक्त संवाद डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर की विचारधारा से जन्मिहुई ‘दलित चेतना‘ साहित्य के ‘हज़ार घोडों का सवार‘ इस उपन्यास से लिए हैं। जिस को यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र‘ जी ने 1981 में लिखा था। मैं इसे एक प्रकार की भविष्यवाणी समझूँगा क्योंकि आज के हालात पर यह एकदम फिट होती है।
बाबा ने ललकारा है। संघर्ष हमारा नारा है।
पोटात तुझ्या पेटली आग। उठ दलिता तोपा डाग।
दलित पैंथर्स के उपरोक्त नारों से यह ज्ञात होता है कि, डाॅ.आंबेडकर विचारधारा कितनी प्रभावशाली है। दलित पैंथर्स एक नव युवा समिति का नाम है, जो मान, अपमान, सफलता, असफलता, की ंिचंता किए बिना समाज में पैदा हुए, उस समाज की मुक्ती के लिए संघर्ष करना अपना कर्तव्य समझता है। सम्यतावाद दलित पैंथर्स का विश्वास है। डाॅ. बाबासाहेब की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा भारतीय परिपे्रक्ष्य मे समृध्दी के लिए सहायक और दलित पैंथर्स उसी दलित मुक्ती का सामूहिक प्रयास है। दलितों पर हो रहे अत्याचारों का तीव्र शब्दों मे निषेध करने वाले, पैंथर्स साहित्य में भी उसी तीव्र स्वर मे बात करते हैं। इसका प्रबल कारण है उनको विरासत मे मिली डाॅ. आंबेडकर की विचारधारा जिसको लेकर ये पैंथर नेता तथा साहीत्यकार अपनी अस्मीता की अलग पहचान रखते हैं।
स्वतंत्र भारत के संविधान के प्रमुख डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर इस युग के महान परूषों में से एक थे। स्वतंत्रता से पहले भारत मे दिन दलित समाज अंधकार में हडप रहा था। वह अपना अस्तित्व ही खो बैठा था। वह इंसान है यह भी भूल बैठा था, यह उन्हे सानातनियों ने भूलने पर मजबुर किया था। मृतवत दलित समाज में डाॅ.बाबासाहेब अंाबेडकर का जन्म सन 14 अप्रेल,1891 में हुआ। अपने सामथ्र्य के ज़ोर पर उन्होंने दलितों मे क्रंाति लाने का प्रयास किया और हक मांगने के लिये उनमें चेतना जगायी। डाॅ.बाबासाहेब के भाषणों का अधिकांश केवल पिछडे और दलितों पर हो रहे अत्याचार और उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए उपाय ही होता था। डाॅ.बाबासाहेब अंाबेडकर ने अस्पृश्यों और दलितों के मन मे एक प्रकार की अस्मीता जागृत की, उन्हे अपने स्वंय के अस्तीत्व की याद दिलाते हुए इसके खिलाफ अवाज उठाने की प्रेरणा देते थे।
डाॅ.आंबेडकर विचार और व्यवहार में संतुलन बनाकर चलने वालों में से थे। उनकी गतिशीलता के सिध्दांतो का आधार यही था कि संसार में ‘कुछ भी जड़ नहीं है, कुछ भी शाश्वत नही और कुछ सनातन नहीं। हर चीज़ परिवर्तन शील है। परिवर्तन मानव और समाज का धर्म है।’ उनका आदर्श ऐसे समाज की रचना करना था जो समता, स्वतंत्रता और भ्रातृभाव पर निर्भर हो। एक आदर्श समाज में अनेक वर्ग विद्यमान रहे और वे एक-दूसरे के हितों को समझे और सहयोग करें। वे चाहते थे कि,‘नियमबध्द धर्म’ के स्थान पर ‘सिध्दांतों का धर्म’ होना चाहिए। ‘परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है’ इसके अनुसार, डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर ने धर्म, ज्ञान और विज्ञान का अभ्यास किया। उसके बाद वह इस परिणाम पर पहुंचे कि, दलितों का उध्दार सि़र्फ दलित ही कर सकता है। इसी के अनुसार उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को बौध्द धर्म स्विकारा। डाॅ.बाबासाहेब ने ‘बुध्द और उनका धम्म’ (Budhha and His Dhamma) नामक ग्रंथ लिखा। डाॅ. बाबासाहेब कहते हैं, समाज के स्थिरता के लिये अनुशासन एंव नौतिकता अनिवार्य है। संविधान सभा के अंतिम भाषण में उन्होंने कहा कि हर समस्या का समाधान संवैधानिक होना चाहिए अन्यथा अराजकता फैल जाएगी। आज ऐसा ही कुछ हालात बन गए हैं।
23 दिसम्बर, 1946 को जयकर द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव का डाॅ.बाबासाहेब ने समर्थन किया, परंतु उन्होंने इसे स्थगित रखने का सुझाव दिया ताकि, मुस्लिम लीग और रजवाड़ों का सहयोग भी लिया जा सके। उन्होंने कहा कि वस्तुतः संविधान भारतीय जनता का प्रतिनिधि है। भारतीय प्रभुसत्ता ब्रिटिश संसद की प्रभुसत्ता की अनुचरी नही है। संविधान की प्रस्तावना से स्पष्ट होता है कि उसे शक्ति कहां से मिली है और किन उद्देश्यों की उसे पूर्ति करनी है। उन्होंने संघीय राज्यसभा के भाषण में कहा था – ‘हमने संविधान के रूप में एक आश्चर्यजनक देव मंदिर बनाया, लेकिन देवताओं की प्रतिष्ठा से पूर्व ही उसे दानवों ने हथिया लिया।’ और वे 27 सितम्बर, 1951 को मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दिया। वे निराश होकर मंत्रिमंडल से बाहर आगए।
डाॅ. बाबासाहेब ने भारतीय संविधान गठन समिति का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। भारतीय संविधान गठन समिति में शामिल होने का उद्येश्य केवल अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा करना था। यह दलितों के और अस्पृश्यों के लिये गौरव की बात थी। भारत के इतिहास में डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर को सबसे पहले निज़ाम शासित प्रदेश के उस्मानिया विश्वविद्यायल ने डाॅक्टरेट डिग्री प्रदान की। जनतादल सरकार ने डाॅ.बाबासाहेब को मरणोंपरांत ”भारतरत्न“ की उपाधि से नवाज़ा। वे हमारे संविधान के निर्माता तो थे ही बल्कि वह सारे समाज के निर्माताओ में से एक थे और आनेवाले लंबे समय तक हम उनसे प्रेरणा पाते रहेंगे। यही उनका सच्चा परीचय है।
डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर की विचारधारा से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। एक दलित होने के नाते, अपनी जाति पर हो रहे अत्याचारष् शोषण को देखते सिर्फ अपनी जाति के लिए नहीं बल्कि राष्ट्र की सभी जातियों की एक सूत्र में बांधने के लिए दर-दर ठोकरें खाना पडा। एक दलित व्यक्ति संविधान गठन समिति तथा पहला केंद्रिय मंत्री बनना कोइ मामूली बात नही है। डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर अपने जाति के लोगों के बारे में नही बल्कि समाज में रह रहे शोषित, पीडित, अल्पसंख्यक, दलित वर्गाें कि समस्याएॅं जैसे- असमानता, छुआछूत, अस्पृश्यता आदि के आंदोलन के मुद्दों पर अपनी अवाज़ बुलंद की।
— सय्यद ताहेर
लेख बहुत अच्छा लगा ,काश लोग आंबेडकर जी को समझ सकें लेकिन ऐसा होगा नहीं और यही हमारे समाज में भाईचारा पैदा होने नहीं देता ,यह उंच नीच के कारण ही मुठी भर अँगरेज़ हम पर राज करते रहे .१४ अप्रैल को मेरा भी जनम दिन होता है और इस दिन मैं जरुर उन्होनों को याद करता हूँ .