आत्मकथा

आत्म-कथ्य : आमने-सामने

26 दिसम्बर, 1947 को जन्मा, बाबूजी (पिता) पोस्टमास्टर थे, 5 भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे दादाजी झालरापाटन सिटी (जिला-झालावाड़, राज.) में एक फर्म में रोकड़िया (केशियर) थे। दादाजी की छत्रछाया मुझे 1963 तक मिली। मेरी शिक्षा कोटा झालावाड़ क्षेत्र के अनेक स्कूलों में होती रही, क्योंकि बाबूजी का स्थानांतरण होता रहता था। लाखेरी, झालरापाटन, झालावाड़ होते हुए मैंने भवानीमंडी से कक्षा 10 राजस्थान बोर्ड की मेरिट लिस्ट में 14 वीं रेंक से उत्तीर्ण की। प्री यूनिवर्सिटी कक्षा 11 झालावाड़ काॅलेज से उत्तीर्ण की। गीता प्रेस का ‘‘कल्याण‘‘ घर में आता था, पर मुझे मात्र ‘‘पढ़ो-समझो-करो‘‘ की कहानियां ही समझ में आती थीं। बाबूजी साप्ताहिक हिन्दुस्तान पढ़ते थे। गीताप्रेस की बालोपयोगी पुस्तकें आती थी, सब मैं पढ़ता था। विशेषांक ‘‘बालक अंक‘‘ पढ़ा। कक्षा 10 की परीक्षा देने के पश्चात दादाजी को रामचरितमानस अर्थ सहित सुनाता था, हिन्दी दोहों वाली हरिगीता भी उसी समय पढ़ना प्रारम्भ किया था। मुझे स्मरण है कि जब डाॅक्टर जवाब दे गए थे, तब अंतिम सांस लेने से पहले दादाजी को मैंने गीता का पाठ कर सुनाया था। दूसरी बार पाठ करने पर पांचवें अध्याय के मध्य में उन्होंने अंतिम सांस ली थी, इस प्रकार धार्मिक एवं छुटपुट साहित्य पुस्तकें बचपन में खूब पढ़ी एवं उन्हीं पुस्तकों से मिले संस्कार, घर में अनुशासन, समय का पालन, मात्र शिक्षा पर सम्पूर्ण ध्यान इत्यादि के साथ जीवन भर की यात्रा के लिए एक सशक्त नींव बन गए थे।

डिप्लोमा कोटा से किया, वहां के पुस्तकालय में पत्र पत्रिकाऐं भी पढ़ता था एवं प्रेमचंद, शरत, महादेवी वर्मा, निराला इत्यादि लेखकों की पुस्तकों को भी इश्यू करवा कर पढ़ता था। मानसरोवर की सारी कहानियां, गोदान इत्यादि मैंने 17-18 वर्ष की उम्र में ही पूरा पढ़ लिया था। डिप्लोमा करने के पश्चात राजस्थान परमाणु बिजली घर में नियुक्ति हुई। हर सप्ताह कोटा आना होता था। उस समय धर्मयुग, सारिका, कहानी, नवनीत, कादम्बिनी पढ़ता रहा। मालती जोशी, सूर्यबाला, कृष्णा, कृष्णा अग्निहोत्री, अनीता राकेश (मोहन राकेश की पत्नी), ज्योेत्सना मिलन, राजेन्द्र राव, इत्यादि को उनकी रचनाओं एवं अपनी घरेलू समस्याओं पर खूब पत्र लिखता था। सभी लेखिकाऐं मुझे अनुज समझ स्नेह, प्यार, मार्गदर्शन के साथ मेरी समस्याओं का समाधान भी बतलाती थी। सूर्यबाला से सरकारी टूर पर जाने पर मुम्बई में दो बार मिला। मालती जोशी से अभी भी पत्र-व्यवहार होता है।

10 दिसम्बर 1974 कोे विवाह बंधन में बंधा। हिन्द पाॅकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना का सदस्य बना, हर माह 5 पुस्तकों का पेकेट आता था। प्रतिष्ठित लेखकों की पुस्तकें मंगवाता था, इस प्रकार पत्र-पत्रिकाओं के साथ खूब पुस्तकें पढ़ी, सत्साहित्य पढ़ता, लेखकों को प्रतिक्रिया लिखता, उनसे आशीर्वाद मिलता। वैज्ञानिक अधिकारी का कत्र्तव्य निभाना कर्म था, पर सत्साहित्य पढ़ना मेरा शौक था। ए.एम.आई.ई. (डिग्री के समक्ष) की परीक्षाऐं मात्र दो वर्ष में विवाह से पूर्व ही उत्तीर्ण कर वैज्ञानिक सहायक से वैज्ञानिक अधिकारी बन चुका था। उसी समय, कुछ कविताऐं भी लिखने लगा। आगरा जाना होता था, वहां मेरे मौसाजी मोहन मनोहर सिंह शांडिल्य, उप जिला मजिस्ट्रेट थे। साहित्य में रूचि रखते थे, उनकी कविताओं की एक पुस्तक ‘‘भूले गीत‘‘ पढ़ी, मेरी कविताओं की डायरी पढ़कर उन्होंने मुझे काव्यात्मक समीक्षा में लिखा था – ‘‘तेरी लेखनी में वो जादू है, जो सिर पर चढ़कर बोलेगा …..‘‘। उन्होंने मेरी कविताओं में संशोधन भी किए एवं उत्साह वर्धन किया। मौसाजी मेरे प्रथम साहित्यिक गुरू रहे।

विभाग की प्रतियोगिताओं में भाग लेना प्रारम्भ किया, निबंध में कई प्रथम पुरस्कार मिले, फिर कलम साथी बन गई। गृहपत्रिका ‘‘अणुशक्ति‘‘ में खूब लिखा, सामाजिक विषयों एवं परमाणु ऊर्जा पर 1991 में गुजरात की संघमित्रा देसाई का कुप्रचार शीर्ष पर था। हर पत्रिका में उनके नकारात्मक लेख प्रकाशित होते थे। ‘धर्मयुग‘ में उनके प्रकाशित लेख पर मैंने अपने अनुभव के आधार पर सकारात्मक पत्र लिखा। वह ‘धर्मयुग‘ के 1 अगस्त 1991 के अंक में सर्वश्रेष्ठ पत्र के रूप में ‘परमाणु बिजली-अंधेरा ही नहीं, उजाला भी‘ प्रकाशित हुआ। परमाणु ऊर्जा विभाग, मुम्बई में वह पत्र एवं उसका अंग्रेजी अनुवाद भेजा गया। हमारे मुख्यालय के प्रबंध निदेशक के अतिरिक्त, अतिरिक्त सचिव, परमाणु ऊर्जा विभाग से मुझे प्रशंसा पत्र मिले। यह पत्र विज्ञान लेखन मे मेरे लिए नीव का पत्थर सिद्ध हुआ। फिर तो विभाग की सभी गृह पत्रिकाओं के साथ वैज्ञानिक, विज्ञान, विज्ञान प्रगति, विज्ञान गंगा, विज्ञान गरिमा सिंधु, आविष्कार इत्यादि में प्रकाशित होता रहा एवं हिन्दी विभागों की वैज्ञानिक संगोष्ठियों में भाग लेता रहा। आकाशवाणी, चित्तौड़गढ़, कोटा, जयपुर से वात्र्ताऐं विज्ञान लोक में प्रसारित होती रहीं।

हिन्दी में अधिक लिखता था। INS NEWS, NUPOWER में अंग्रेजी में भी लिखता रहा, सेमीनार में खूब पत्र-वाचन किए। ‘‘परमाणु‘‘ पत्रिका का एक सम्पूर्ण अंक ग्रंथ 19/3, मेरी ही पुस्तिका ‘‘भारत में परमाणु ऊर्जा‘‘ पर समर्पित था। संतुष्टि मिलती थी, परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग पर सरल हिन्दी में जनता तक तथ्यात्मक विचार पहुंचाने पर विभाग के शीर्षस्थ अधिकारी मेरे विज्ञान लेखन से बहुत प्रभावित थे। सन् 2000 में तारापुर परमाणु बिजली घर से प्रथम सम्मान ‘‘विज्ञान रत्न‘‘ का मिला। विभाग का राजभाषा क्षेत्र में सर्वप्रथम राजभाषा भूषण पुरस्कार डाॅ. अनिल काकोडकर से 15 जनवरी 2003 को केट, इन्दौर में मिला, विज्ञान लेखन की निरन्तरता बनी रही, 14 सितम्बर 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का आत्माराम पुरस्कार 2004 मिलना एक सुखद क्षण था एवं यह सिद्ध करता था कि ईमानदारी, निःस्वार्थ भावना से सृजन पथ पर चलते रहो, फल तो स्वतः ही बिन मांगे मोती मिले के समान मिलते रहेंगे।

इसी बीच ‘‘शुभ तारिका‘‘ पत्रिका से जुड़ा। लघुकथाऐं लिखना प्रारम्भ किया, लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहा। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में सम्पादक के नाम पत्र में प्रकाशित होता रहा। कहानी लेखन महाविद्यालय से लेख रचना का कोर्स किया। अजमेर शिविर में डाॅ. महाराज कृष्ण जैन एवं उर्मि कृष्ण से मिलना हुआ। विज्ञान लेखन के सूत्र सीखे। शुभतारिका में 6 लेखक परिशिष्ट प्रकाशित होते रहने के अतिरिक्त कई पत्रिकाओं में लघु कथाऐं, कहानी, लेख प्रकाशित होते रहे। पुस्तक महल से प्रकाशित दो संकलनों में एव कई संकलनों में मेरी लघुकथाओं को स्थान मिलता रहा। सत्साहित्य पढ़ने की निरन्तरता भी बनाए रखी। कहानी, धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान बन्द होने पर लगा कि परिवार का ही कोई आत्मीय छिन गया है।

आरती प्रकाशन, खतौली से मेरा सर्वप्रथम लघुकथा संग्रह ‘‘कड़वे सच‘‘ 2004 में प्रकाशित हुआ, उस संग्रह में मालती जोशी एवं सूर्यबाला से भी मुझे लिखित आशीर्वाद मिला था, नन्ही भूमिका के रूप में। 14 नवम्बर 2003 को धर्मपत्नी का आकस्मिक निधन मेरे लिए जीवन का तूफान रहा, बाबूजी तो 16 फरवरी 1985 को ही चले गए थे। मेरी अम्मा (मां) उनके जाने के पश्चात मेरे साथ ही रहीं। मेरी हर साहित्यिक रचना की पहली पाठिका होती थीं। 15 फरवरी 2010 को वे भी इस संसार से मुक्त हो गईं। जीवन संगिनी के जाने के बाद इकलौती सन्तान बेटी मिली की अधूरी शिक्षा पूरी करवाई, पर कलम की स्याही नहीं सूखने दी। विज्ञान एवं साहित्य सृजन दोनों ही पक्षों पर खूब लिखता रहा, आंधी-तूफानों के पश्चात भी सृजन की निरन्तरता बनाए रखने से मैं तनाव, डिप्रेशन से दूर ही रहा एवं चाहे लघु पत्रिकाऐं ही सहीं हर प्रकाशित रचना मेरे मन में ऊर्जा भरती रही।

पत्रात्मक शैली में लिखना प्रारम्भ किया। संतप्त बेटी को होस्टल में जो पत्र लिखा वह ‘‘अहा! जिन्दगी‘‘ के आशीवार्द काॅलम के लिए भेज दिया, अक्टूबर 2005 अंक मेें ‘‘आधा खाली नहीं, आधा भरा कहो‘‘ प्रकाशित हुआ, तो कई पाठक पाठिकाओं के पत्र मिले। शहडोल के सहजीवन समिति की मनीषा माथनकर का भी मिला एवं तत्पश्चात निरन्तर पत्र व्यवहार एवं शहडोल जाकर उनसे मेरा साक्षात मिलना मेरे जीवन की विलक्षण घटनाऐं हैं, मनीषा दीदी से पवित्र निःस्वार्थ निर्मल रिश्ते की प्रेक्टिकल परिभाषा सीखने को मिली। सहजीवन शहडोल में जाने पर उनके लिए भी एक पुस्तक ‘‘अहा! सहजीवन‘‘ लिखी, जिस पर अभी संशोधन, सम्पादन चल रहा है, शायद, शीध्र प्रकाशित हो सकेगी।

बोधि प्रकाशन, जयपुर से 2010 में मेरी दूसरी कृति ‘‘छलकता गिलास‘‘ प्रकाशित हुई जो मेरे पत्रों एवं लघुकथाओं का संग्रह है। कुछ संस्थानों से पुरस्कार सम्मान भी मिलते रहते हैं, पर पाठक पाठिकाओं के पत्र एवं अब फोन, एस.एम.एस., फेसबुक पर टिप्पणी, ई-मेल मेरे लिए अधिक मूल्यवान हैं एवं लेखन को सार्थकता का प्रमाण देते है हर पत्र का उत्तर देता हूँ। सभी पत्र रचनाओं की कटिंग्स के समान सुरक्षित हैं। 1000 से अधिक पुस्तके हैं घरेलू व्यक्तिगत पुस्तकालय में, 15-20 पत्र पत्रिकाऐं अभी भी खरीदता हूँ। हर माह डाक में 40-50 पत्र पत्रिकाऐं आती हैं, हमारे पोस्टमेन सप्ताह में एक बार एक किलो डाक रख जाते हैं। डाक मिलने का दिन मेरे लिए त्यौहार सदृश है, खूब पढ़ता हूँ, थोड़ा लिखता हूँ।

सृजन के त्रिभुज की दो भुजाओं विज्ञान एवं साहित्य के अतिरिक्त तीसरी भुजा है ‘‘प्रबंधन‘‘ समय प्रबंधन, केरियर प्रबंधन, जीवन प्रबंधन पर खूब बोला है एवं खूब लिखा है। 1994 में पत्राचार से एम.बी.ए. करने के पश्चात प्रबंधन पर बोलना-लिखना प्रारम्भ किया।
समय प्रबंधन पर 20000 पर्चे स्कूलों में बांटे, स्वयं ही प्रकाशित करवाई पुस्तक ‘‘समय‘‘ निशुल्क वितरित कीं, 1000 से में 950 प्रतियां वितरित हो चुकी हैं। उपकार प्रकाशन, आगरा की ‘‘सामान्य ज्ञान दर्पण‘‘ मासिक प्रत्रिका के साथ अक्टूबर 2011 एवं अप्रैल 2012 में मेरी लघु पुस्तिकाऐं ‘‘समय‘‘ एवं ‘‘जीवन मूल्य एवं प्रबंधन‘‘ प्रकाशित होने पर देश के हर कोने से प्रतियोगी परीक्षाऐं देने वाले उम्मीदवार मुझे फोन करते रहते हैं। मर्गदर्शन लेते हैं, व्यक्तिगत एवं केरियर सम्बन्धी समस्याओं का समाधान लेते हैं। एस.एम.एस. व ई-मेल करते हैं, पत्र लिखते हैं, इन दोनों लघु पुस्तिकाओं ने मुझे अनजान छात्र-छात्राओं से परिचित करवा दिया, कई अनजानी बेटियां मिलना चाहती हैं। विवाह में निमंत्रित करती हैं, हर जगह जाना सम्भव नहीं, कन्यादान का शगुन भेज देता हूँ।

31 दिसम्बर 2007 को परमाणु ऊर्जा विभाग से सेवानिवृत्त होने के पश्चात विज्ञान साहित्य प्रबंधन की त्रिवेणी में पढ़ लिख कर जीवन की सार्थकता महसूस करता हूँ। सेवानिवृत्ति के पश्चात मिला पत्रं पुष्पं इकलौती संतान बेटी को समर्पित कर चुका हूँ। बेटी एवं उसके जीवन साथी आनन्द यादव के घर में अतिथि रूप में निवास कर रहा हूँ। जीवन की संध्या में मिली एवं आनन्द की सेवा के बदले मेरे पास देने के लिए कोई मेवा नहीं हैं। पेन्शन मिलने पर पत्रं पुष्पं आर्थिक अंशदान आनन्द को दे देता हूँ। मिली चित्रकला में शोध कर रही है, उसके शोध हेतु भी आर्थिक सहयोग कर संतोष अनुभव करता हूँ।

जीवन में 58 बार रक्तदान जीवनदान एवं गत 10 वर्षों से आय का 2 से 5 प्रतिशत निर्धन छात्राओं की सहायता हेतु स्टेशनरी, ड्रेस, फीस, पंखे इत्यादि के गीत गाना आत्मप्रशंसा होगा। पुण्य कम होगा, पर मैं पाप व पुण्य नहीं समझता, मैं मात्र कर्म करता हूँ, यही मेरा धर्म है। स्कूलो में आमंत्रित वात्र्ता देता रहता हूँ। नगर के गायत्री परिवार की साप्ताहिक बाल पाठशाला में गत एक वर्ष से चरित्र, संस्कार, समय प्रबंधन, शिक्षा पर बच्चों से बात करता हूँ। परमाणु नगरी के 75 प्रतिशत बच्चों के बीच मेरी पहचान ‘‘दिलीप अंकल‘‘ है।

बड़ों के आशीर्वाद में विश्वास है, बच्चों से मिल रहा प्यार ऊर्जा स्त्रोत है, उर्मि कृष्ण, मालती जोशी, मनीषा माथनकर इत्यादि आत्मीयों से आर्शीवाद मिलता रहता है। कथाविम्ब के सम्पादक अरविन्दजी के समक्ष मैं नतसस्तक हूँ, उनके लिए शब्दकोश के औपचारिक शब्द धन्यवाद कृतज्ञता आभार लिखना उनकी महानता का अवमूल्यन होगा।

जीवन के सूर्यास्त से पूर्व स्वास्थ्य, शक्ति, हिम्मत, ऊर्जा, संसाधन अनुसार सृजन के तीनों स्तम्भों विज्ञान, साहित्य एवं प्रबंधन पर अधिक पढूंगा, कम लिखूंगा, अधिक सुनंूगा, कम बोलूंगा, इस आत्मरचना के पाठक पाठिका मेरी ई पुस्तक ‘‘त्रिवेणी‘‘ हेतु निःसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं, एक पत्र/फोन/ई-मेल/एस.एम.एस. से मुझे अपना आशीर्वाद प्यार, स्नेह, मार्गदर्शन देंगे, तो मेरा भविष्य का सृजन शायद कुछ अधिक गुणवत्तापूर्ण हो सकेगा एवं मैं देश के कुछ और परायों को अपना ही नहीं, आत्मीय बना सकूंगा। इति.

दिलीप भाटिया

*दिलीप भाटिया

जन्म 26 दिसम्बर 1947 इंजीनियरिंग में डिप्लोमा और डिग्री, 38 वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग में सेवा, अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक अधिकारी