कविता : पूजा की थाली
पूजा के थाल में लिए…दीपक,रोली-अक्षत,चन्दन और पुष्प,
ध्वजा-नारियल,चूनर,गूगल बताशे,नैवेद्य ,धूप और कपूर !
सुन्दर सी बन्दनवार,मेरे मन में उमंगें हज़ार,
आ रही थी माँ तेरे द्वार,
तेरी शरण आना था,दीपक जलाना था ,
गीत-भजन गाना था,घंटा भी बजाना था !
बस दस कदम ही तो चल पाई थी,
सहसा ही लड़खड़ाई थी,जब सामने
उस अर्ध-विक्षिप्त भिखारिन की उजड़ी ओ’
अस्त-व्यस्त झोंपड़ी नज़र आई थी !
सब याद मुझे आया था,कुछ दिन पहले ही,
काल के क्रूरतम हाथों ने इसके घर के इकलौते,
जवान चिराग को बड़ी बेदर्दी से बुझाया था !
पूरे नौ दिन व्रत रखने वाली का घर था आज ध्वस्त,
ना घर में नोन-तेल,ना दूध-चीनी ना कोई अनाज,
क्या खाये,क्या ओढ़े-पहने कैसे हो दीपक जलना,
माँ उसका दुःख देख मैं भूल गयी मंदिर तेरे आना!
उस पल लगा मंदिर नहीं …बस यही है तेरा ठिकाना,
कुटिया में दीप जला,और पूजा का थाल उसे पकड़ा,
उलटे पाँव वापिस मैं चली आई,उसकी मुस्कान में,
सच कहती हूँ मन में मैंने शान्ती बहुत है आज पाई !
मुझे तो माँ उस दुखिया भिखारिन में,बस तू ही नज़र आई,
हां माँ …………….उसमे बस तू ही नज़र आई !!!!
— पूर्णिमा शर्मा