कविता : अम्मा
मैं कहती थी अम्मा को
तनिक बैठ कर सुस्ता लो ना
तूम फिरकी सी क्यों फिरती हो
तुम क्या कोहलू का बेल हो ।
तुम ही क्यो पूरे कुटुम्ब की
सेवा में तत्पर रहती हो
थोड़ा खुद के लिए भी तो
वक़्त तूम निकालो
कितनी सुंदर कितनी हंसमुख
तुम रहती थी
दिखती थी परियों जैसी
अपने मन को हार कर
सब का मन जिता तुमने
अपने मन को मत हारो ।
वो बातें मुझ अब लगती है
पगली जैसी
अम्मा अब हुए जाती हूँ मैं
तेरे जैसी
तेरी नातिन अब
वो बातें मुझ से है कहती
देखा लेना ब्याही जाने पर
वो भी हो जाएगी
तेरे मेरे जैसी