कविता : मेरी रूह
मेरी रूह से लिपटी तेरी रूह
अक्सर सिसक उठती है
तनहाई की रातों में…
सुलग उठते हैं एहसास मेरे
तुम्हें छूने की तमन्ना में
हाथ बढ़ते हैं…
तेरी लौ को पकड़ने के लिए
मगर सांसें चटक जाती हैं
टूटे रिश्तों की तरह…
बिखर जाते हैं एहसास मेरे
तड़प उठती है रूह मेरी
बस हर बार यही सोचती हूँ मैं
अपनी तन्हाइयों को मिला दूँ
तुम्हारी तन्हाइयों से…
शायद रूह की आग में
ये आग भी शामिल हो जाए।
— ‘रश्मि अभय’