बिन पानी सब सून
कुदरत का कैसा ये कहर टूटा है,
जमीं सूखी है और आसमाँ रूठा है!
त्राहि त्राहि मची है हर गाँव शहर ,
मुसीबतों का पहाड़ सर पर टूटा है!
कहीं थोड़ा कहीं बहुत ज्यादा आभाव है,
पानी बिक रहा आज देखो सोने के भाव है!
हवा पानी मुफ़्त की बातें लगती कहानी है’
“बिन पानी सब सून” सब की जुबानी है!
पानी के लिए भी चल रहा कितना भेदभाव है,
व्यर्थ बह रहा महलों में झोंपड़ों में आभाव है!
जमीं सींचने पानी नहीं किसानो के लिये,
खेल के मैदानों में देखो बह रहा बहाव है!
अभी भी समय है यहाँ सम्हलने का,
अटल जी की योजना को लागू करने का!
नदियों को जब हम आपस में जोड़ पायेंगे,
पानी की समस्या से बाहर तभी निकल पायेंगे!
— पुरुषोत्तम जाजु