कविता : किसान
एक इंसान को
जो सुबह से शाम
काम करता है खेत है
सूरज की ज्वाला में जलता
जाड़े में सिकुड़ता
वस्त्र है फटे तन पर
पांव हैं जल रहे
भूखा प्यासा लगा है
बीज बो रहा है
आने वाली पीढ़ी के लिए
अन्नदाता है जो
खून के आँसू रोता है
हो न बारिश
किस्मत को कोसता है
दूध के लिए मुन्नू
तरसता है
ऐसा फटा हाल सा
है उसका
खाने को नही है रोटी
कैसे रखे बीबी का ध्यान
गर्भवती है बीबी
ला न पायें दवाई
फसल जलती धूप में
सूद ब्याज है उधार
पैरों की विवाई भी
मजबूर है
कहने को हाल
अभिशाप है यह दरिद्रता
इसलिए मजबूर हो
लगा लेता है फाँसी
— डॉ मधु त्रिवेदी