कविता : दुनियादारी
सार जग का केवल
निहित है रोटी में
दुनियादारी भी रोटी के
चहुँ ओर चलती है
चार दिन को केवल
ठहरें मनुष्य यहाँ पर
ना जाने कब उठ जायें
बोरी -बिस्तर जहाँ से
फिर भी ना माने वो
तेरी -मेरी करने से
दम्भ बहुत ही भरता
खाली हाथ ही जाता
अपनों की राजनीति
चतुरों की तरेरती आँखे
बहुत देखा यहाँ अपनों
का गला काटें देखा
समझदारी भी देखी
निभाने में रिश्तों को
बदला अपने को बहुत
पर जग न बदला
— डॉ मधु त्रिवेदी
बहुत बढियां