एक भ्रूण की करुण पुकार
कर रहा है इक करुण पुकार
कोख में पलता हुआ इक भ्रूण !
हे मेरी माता ! हे मेरी मैया
तू न कर अपनी कन्या का खून !
जब पता चला तू माँ बनेगी
तू तो बड़ी हर्षाई थी !
बड़े ही गर्व से तूने तो
सब को ये खबर सुनाई थी !
आज जब तुझको हो गया है ज्ञान
कोख में तेरे है इक बालिका प्राण !
तो क्यूँ इतनी तू घबराई है
किस बात से फिर तू सताई है !
तू स्वयं भी तो इक स्त्री है
तूने भी तो नानी की कोख में जगह पाई थी!
फिर क्यों हर पल ऐ माँ
तू मेरी जान लेने को तुली है !
सुना है मैंने कि ये संसार इक गन्दा सागर है
माँ की कोख में ही मिलता सब सुख गागर है!
नौ माह तक माँ के खून से शिशु के प्राण तन बनते हैं
माँ के भीतर रहकर ही सब अंग पनपते हैं !
फिर तू कैसी माँ है रे माँ
जो मुझको ये ममता की छाया नहीं देगी !
तेरे भीतर रहकर ही तो मैं
इस सृष्टि को भी देख सकूंगी !
अभी तो मैंने इस जग को
इतना सा भी जाना नहीं है!
जन्म देने से पहले ही माँ
क्यूँ तूने मुझे ठुकराना ही है !
माँ तो कहलाती ममता की मूरत
सुख की छाया, भगवान की सूरत !
संतान चाहे हो जाए कितने भी कुकर्मी
माँ तो सदा शिशु की हमदर्द है रहती !
इक नन्हीं सी जान हूँ मैं तो
मुझे भी तो जीने दे हे माँ !
मैं भी तो देखूँ इस संसार में
कैसे कैसे रंग भरें हैं हे माँ !
ऐसा क्या गुनाह हो गया है मुझसे
क्यूँ बोझ समझ त्यागना चाहती मुझे!
इतनी क्यों हो रुष्ट मुझसे
खामोश क्यूँ हो बात करो मुझसे !
माँ तो जग की जननी होती है
परिवार का वंश बढ़ाती है !
सती, सावित्री , दुर्गा जैसी
कन्याओ को पैदाती है !
मैं भी उनके जैसी बनूँगी
तेरे अंगना में फिर चहकुंगी !
बापू की खूब सेवा करके
दादा दादी का नाम रोशन करूंगी !
मुझे मारकर हे माता
क्यूँ अपना पाप बढ़ाती हो!
अपनी ही अंश को अलग कर
क्यूँ कुमाता कहलाती हो !
इक बार जन्म देकर तो देख
किस तरह तेरी बगिया महकाती हूँ !
तेरे आंचल की छाया में
देख कैसे मैं चह्चाती हूँ !
तेरे सुख दुःख की सखी बनूंगी
नैनन के अश्रु सब दूर करुँगी !
ढाल बन खड़ी रहूंगी समक्ष तेरे
बेटे जैसा हर कार्य करुँगी !
हे माँ, हे जननी मेरी
सुन ले करूण पुकार तू मेरी !
न कर इतनी घृणा मुझसे
सीखूंगी मैं जीना तुझसे !
कल को मैं भी स्त्री बनकर
कन्या को ही जन्म दूंगी !
खुद जन्म पाया अपनी माँ से
गर्व से सबको कहूँगी !
— डॉ सोनिया