कविता

कविता : स्त्री

कितनी

पिसती है
हर रोज
चकला ,बेलन
के मध्य स्त्री
हाँ स्त्री रोटी सी स्त्री
कभी कभी यूँ ही
सोचकर मन
भारी हो जाता है
मां बाप के घर में
आटे सा तैयार
किया जाता है
बारीक ताकि कोई
कमी नहीं रह जाये
ब्याही जाने पर
ससुराल जाकर
उसका मंथन
किया जाता ताकि
नर्म नर्म रोटी सी
बन कर पूरे
परिवार को संतुष्ट
कर सके
पिसती रहे रोटी
सी चकला , बेलन
के बीच अपने
अस्तित्व को दबाए
चूप
स्त्री हाँ रोटी सी स्त्री ।लकड़ी
काट कर अपनी
जड़ो से
गीली लकड़ी को
गठ्ठर बाना
बान्ध कर
रस्सी से
ला कर
घर के किसी कोने
में ड़ाल कर
छोड दिया जाता है
सूखने के वास्ते
ताकि
जब चूल्हे में
ड़ाली जाये तो
जलकर आसानी से
राख हो जाए ।
धुआँ धुआँ हो जाये
वो
पर
किसी और की
आंखें में पानी नहीं
आने दे
जलती हुई
सुखी लकड़ी  ।