कविता

कविता : देह

देह
उसकी देह आज
चुपचाप पड़ी थी
म्रत
बिना कम्पन के
मार कर
अपने
मन को
जब मुर्दा सी
पड़ी रहती थी
तब कोई नहीं
आया
रोने को
देह निष्क्रीय
देह
सब कोई धहाड़े
मार मार कर
दुखी होने का स्वांग ।
क्यो ?