उत्कृष्ट हिन्दी-अनुदित उपन्यास “चुटकी भर नमक”: एक समीक्षा
हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री आनंदकृष्ण ने भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका श्रीमती पूनम ए. चावला के अँग्रेजी उपन्यास “मुम्बई मॉर्निंग” का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद किया है । अपने चिरपरिचित प्रशस्त अनुवाद के माध्यम से वे उपन्यास को उसके कथ्य की सार्थकता तक ले जाने में पूर्णतया सफल हुए हैं । अनुदित उपन्यास का एक एक शब्द मौलिकता से इतना अधिक परिपूर्ण है कि कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि किसी अँग्रेजी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद पाठक पढ़ रहे हैं । इसका एक कारण यह भी है कि एक प्रवासी भारतीय लेखिका होने के बावजूद भी विदेशी कथ्यों व तथ्यों से बिल्कुल विलग सम्पूर्ण उपन्यास, विशुद्धरुप से भारतीय परिवेश के व्यापक संदर्भों को स्पर्श करता हुआ, जीवन के यथार्थ की गत्यात्मकता के निकट ले जाकर, प्रत्येक चरित्र की सामयिक परिवेशी कठिनाइयों और स्वीकृतियों के पंजीकृत हस्ताक्षर के रुप में प्रस्तुत किया गया है । उपन्यास इस बात को स्पष्टरुप से व्यक्त कर पाने में सफल हुआ है कि पारम्परिक तौर पर भारतीय समाज की इकाई एक व्यक्ति न होकर संयुक्त परिवार होता है जहाँ जीवन के वृहत्तर मूल्यों की सार्थकता के लिए परिवार के सदस्यों का विवेक, उनकी संवेदनाएँ और सह-अनुभूतियाँ सामंजस्यरुप से अपनी अपनी भूमिकाएं निभाती हैं ।
वहीं आनंदकृष्ण जब इस हस्ताक्षर को “चुटकी भर नमक” की संज्ञा देकर समस्त कथ्य संदर्भों को जीवन में उनके होने की अनिवार्यता सिद्ध करना चाहते हैं, तब सहज ही गाँधीजी का नमक सत्याग्रह स्मरण हो आता है, क्योंकि इस पर लार्ड इर्विन ने कटाक्ष करते हुए व्यंग्य किया था कि यह महज कुछ नहीं बल्कि “चुटकी भर नमक” से ब्रिटिश हुकूमत को हिलाने की एक विभ्रान्त योजना है । कालांतर में इस “चुटकी भर नमक” ने क्या असर दिखाया उसे बताने की आवश्यकता नहीं है । जिस तरह किसी भी व्यंजन में स्वाद “चुटकी भर नमक” पड़ने के बाद ही आता है । “चुटकी भर नमक” की न्यूनता व अधिकता भोजन को बेस्वाद कर सकती है । ठीक उसी तरह नैतिक मूल्यों का विघटन, परम्पराओं के प्रति विद्रोह, जिजीविषा और अस्तित्व के संघर्ष जैसी जीवन मूल्य रुपी “नमक की चुटकियाँ” कब अपने असंतुलन से जीवन को बेस्वाद कर देती हैं, पता ही नहीं चल पाता ।
उपन्यास की भूमिका दो विश्वविद्यालयों क्रमशः डॉ. सी.वी. रमन विश्वविद्यालय, बिलासपुर तथा आइसेक्ट विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलाधिपति एवम् हिन्दी में विज्ञान साहित्य के उन्नयन में पिछले 35 वर्षों से निरंतर सेवारत मनीषी प्रोफेसर संतोष चौबे जी ने लिखी है । संतोष जी ने अपनी भौतिक वैज्ञानिक साहित्यिक शैली में उपन्यास को सारगर्भित करते हुए भारतीय परिवेशिक सामयिकता का एक बड़ा ही वास्तविक प्रतिविम्ब भूमिका में उकेरा है, जो स्पष्ट करता है कि इस उपन्यास में केंद्रीकृत समस्त नारी पात्र, युगों से विभिन्न रुपों में अपने चरित्रों को निभाती आ रहीं भारतीय नारियों की पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे में समाहित होते चले जाने की परमाणु विखण्डन की मानिंद, बस एक शाश्वत प्रक्रिया के अलावा और कुछ नहीं हैं ।
इस उपन्यास में पूनम चावला जी ने अपने विभिन्न नारी पात्रों की सांद्र स्वानुभूति एवम् मर्मस्पर्शी संवेदनाओं को स्वाभाविकता के साथ लिखने का जो सार्थक व सफल प्रयास किया है, वैसी ही श्रेष्ठता उपन्यास के हिन्दी अनुवाद में भी परिलक्षित होती है । मात्र वार्तालाप के माध्यम से पूरे उपन्यास को निरंतर पढ़ते रहने की लालसा का ऐसा अनूठा प्रयोग हिन्दी साहित्य में विरला ही है । इस अनूठेपन के कारण उपन्यास के प्रत्येक पात्र में कहीं न कहीं पाठक को अपना अक्स नज़र आने लगता है । उपन्यास की यही शैली कथ्य को सहज और सरल बनाती है, जो कहीं न कहीं पाठक को यह अनुभव कराती है जैसे सब कुछ उसके अपने घर में घटित हुईं अथवा हो रहीं घटनाएं ही हैं । हर पात्र या तो वो स्वयं है अथवा उसका अपना कोई परिचित मित्र या रिश्तेदार है । इस उपन्यास की यही सबसे बड़ी खूबी कही जा सकती है कि मायके में आकर अपनी माँ के साथ घण्टों अनवरत बतियाने और गपियाने वाली प्रत्येक भारतीय लड़की उपन्यास की मूल नायिका साया ही है । पात्र वास्तविक न होते हुए भी वास्तविक प्रतीत होते हैं।
उपन्यास के कुछ पात्र जैसे हरीश, राजन साहब, राधा, शाज़िया, ऋतु, मैड डॉग महान, बुलबुल, नीना, ऐमी और मैना भारतीय परिवेश में पाश्चात्य सभ्यता एवं आधुनिक चकाचौंध से प्रभावित वर्तमान महासागरीय संस्कृति और सर्वत्र विकीर्ण हो रहे तकनीकी कम्प्यूटरीकृत आलोक तथा उपभोक्तावादी संस्कृति से दुष्प्रभावित होकर पारिवारिक व सामाजिक नियमबद्ध अनुशासित नैतिकता की सीमाओं का उल्लंघन करने में हिचकिचाते भी नहीं हैं । वहीं साया की माँ जया और सबसे बुजुर्ग दीना मौसी में नारी चेतना के विकास के समानांतर भारतीय संस्कार, संस्कृति एवं परंपराओं के निर्वहन में चरित्र निर्मात्री शक्ति के दर्शन होते हैं। नारी की आत्मा, स्व और अहं से ध्वनित आध्यात्म की ओर आकर्षित एक और पात्र स्वामिनी भी उपन्यास में पारिवारिकता और सामाजिकता के बहुत से पहलुओं पर संक्षिप्त में परन्तु विस्तार से बहुत कुछ कहती प्रतीत होती है । शीला मौसी और चोरनी मोना जैसे पात्रों के माध्यम से किए गए आज के नारी विमर्श से स्पष्ट किया गया है कि कैसे वैयक्तिकता और सामाजिकता के अंतःसंघर्ष के कारण आकांक्षाओं और परिस्थितियों का प्रभाव व्यक्तित्व, नैतिकता और वैचारिकता पर पड़ता है । किस तरह मरवाह साहब, मथिस सर, खान साहब और सलीम जैसे लोगों के बहकावे में आकर भारतीय लड़कियाँ अपना सबकुछ दांव पर लगाने को मजबूर हो जाती हैं । उपन्यास में प्रत्येक स्त्रीपात्र के सम्मान और पारस्परिक संबंधों के जटिल अंतर्विरोध, प्रेम के अंतरंग स्वरूप, आर्थिक कठिनाइयों, बेमेल विवाह से व्यथित, अविश्वास और संदेह से ग्रसित, व्यभिचार से सुलगता एवम् संत्रास कुण्ठा हताशा से विषाक्त दाम्पत्य जीवन तथा महत्त्वाकांक्षाओं के अतिरेक ने नारी के दोहरे व्यक्तित्व वाले चरित्र को निरूपित किया गया है ।
महानगरीय सभ्यता के बीच गाँव और कस्बों का जिक्र भी उपन्यास में मिलता है । गाँवों में आज भी मानसिक कुंठाओं और अभिज्ञताओं के साथ जादूगरनी और डायन के नाम पर नारियों का शोषण तथा राज़दार भजनसिंह जैसे ईमानदार नौकरों का अपमान बदस्तूर जारी है। उपन्यास के विविध पात्र अलग अलग तरह से एक बात सार रुप में पाठक के समक्ष रखना चाहते हैं कि माँ जया और उनकी सिस्टर-चैनल से लेकर ऐमी और मैना तक सामाजिक विचारों, अनुभूतियों, संकल्पों की आनुषांगिक दशा, स्थिति और क्षमता में कुछ विशेष उल्लेखनीय परिवर्तन का अंतर कर पाना कितना कठिन है ।
उपन्यास में प्रसंगवश प्रस्तुत किए गए शीलहीन शब्द और दैहिक नग्नताओं के वर्णन सम्भवतः आज की साहित्यिक अनिवार्यता बन गए हैं । सेक्स के सम्बन्ध में उन्मुक्तता को सम्भवतः पाठक अधिक पसन्द करने लगे हैं । पिछले कुछ दशकों से साहित्य में उन्मुक्त यौनाचार, श्लीलता-अश्लीलता जैसे वर्णन सर्वथा बेमानी हो गए हैं । यह साहित्यिक स्वछंदता अधिकांश पाठकवर्ग को प्रिय हो सकती है, परन्तु मुझ जैसे कुछ पाठकगण भी हैं जो इसकी अनिवार्यता को खारिज करते हैं । आनंदकृष्ण के अनुवाद ने हिन्दी साहित्य की इस शीलता को नग्न न होने देने का पूरा प्रयास किया है, जो अनुवाद में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, पर जो लिखना पड़ा वो अनुदित अनिवार्यता से अधिक कुछ नहीं था ।
साहित्य समाज का दर्पण होता है । उपन्यास ने अपने इस साहित्यिक उत्तरदायित्व को पूर्णतया निभाया है । आनंदकृष्ण जी ने अपने सरल, सहज परन्तु गहन हिन्दी अनुवाद से उपन्यास में उद्घाटित सामाजिकता के संश्लिष्ट स्वरूप को और अधिक सम्बल प्रदान कर दिया है । निश्चितरुप से यह उपन्यास अनिवार्यतया पठनीय है ।