कविता : अब न आऊँगी सखी…….
अब न आऊँगी सखी तुम्हारे उस गेह में।
अनुभूत होती न्यूनता निरंतर स्नेह में।
शेष रव को मौन होने से बचा लें, चलो।
वे शब्द ही थे जिन्होंने बंद की है वीथिका।
भाव ही बस शेष होंगे स्मृति के पट्ट पर,
वरन् अब क्या रखा है इस कलुषित देह में।।
श्री बाधक बन सकेगी, ऐसा कभी सोचा न था।
वे नीड़ के ही खण्डहर थे जिन पर हँसी अट्टालिका।
उत्सर्ग ही बस रुप होगा प्रेम के आरेख पर,
संश्रय कब अर्थ रख सका है मोक्ष से विदेह में।।
अब न आऊँगी सखी तुम्हारे उस गेह में।
अनुभूत होती न्यूनता निरंतर स्नेह में।
— डॉ. शुभ्रता मिश्रा