महर्षि दयानन्द और उनका विश्व के कल्याण का अपूर्व कार्य
ओ३म्
महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने विश्व के सभी मनुष्यों व प्राणिमात्र के हित के लिए जो कार्य किया वह अपूर्व एवं सर्वोत्तम है। देश व विश्व की जनता का यह दुर्भाग्य है कि वह उनके कार्यों के यर्थाथ स्वरूप व उन कार्यों की संसार के सभी मनुष्यों के सन्दर्भ में महत्ता व उपयोगिता से परिचित नहीं है। इसका कारण भी मत-मतान्तर व उनके आचार्य व प्रचारक हैं जो अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण सत्य को सामने आने देना नहीं चाहते। महर्षि दयानन्द के जीवन पर यदि दृष्टि डालें तो उनके जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह मिलती है कि उन्होंने सत्य ज्ञान की खोज को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर उसे प्राप्त किया था। ऐसा कोई अन्य मनुष्य जिसके जीवन का उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समान हो और उसे अपने उस कार्य में सफलता मिली हो, विश्व के क्षितिज पर दृष्टिगोचर वा उपलब्ध नहीं होता। विज्ञान के सामने जो भी बातें आती हैं, वह उनकी परीक्षा कर उसमें सत्य को स्वीकार करता है और असत्य को अस्वीकार व उनका तिरस्कार कर देता है। परन्तु धार्मिक सिद्धान्तों व मान्यताओं में विज्ञान के इस सिद्धान्त, सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग, को हम कहीं लागू होते हुए नहीं देखते। सभी मत अपने अपने सत्यासत्य मिश्रित सिद्धान्तों को मानते चले आ रहे हैं और शायद प्रलय पर्यन्त मानते ही रहेंगे? इसका एक कारण मत-मतान्तरों के लोगों का अपना अपना अज्ञान व स्वार्थ आदि हैं। वहीं भिन्न-भिन्न देशों की राजनैतिक व्यवस्थाओं द्वारा मत-मतान्तरों के पोषण सम्बन्धी व्यवस्थायें भी हैं। पाठक सुविज्ञ हैं, वह इन बातों को भली प्रकार से जानते हैं, अतः इस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने 14हवें वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन की जाने वाली मूर्तिपूजा को देखकर उसकी निस्सारता वा व्यर्थता को समझ लिया था। 13 वर्ष के बालक के मूर्तिपूजा पर समाधानकारक उत्तर न शिवभक्त उनके पिता के पास थे न किसी अन्य पौराणिक विद्वान व आचार्य के ही पास। इसने बालक दयानन्द के सम्मुख धर्म वा मत में निहित असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का संकेत दे दिया था। इसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने 21 वर्ष की आयु तक शास्त्राध्ययन कर विवाह से बचने के लिए और सत्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए माता-पिता के भौतिक सुख-सुविधाओं से पूर्ण गृह का त्याग कर दिया था। गृहत्याग के बाद सन् 1863 तक के 17 वर्षों तक सत्य धर्म व सत्य ज्ञान की खोज करते रहे थे। इसी बीच उन्होंने योग विद्या सीखी जिससे वह ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ हुए। उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना, ईश्वर का ध्यान, धारणा और समाधि तथा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह लक्ष्य भी विज्ञान की तरह अनेक क्रियाओं व सदाचारण करने से प्राप्त होता है। इनसे इतर विवेक की प्राप्ति के लिए सब सत्य विद्याओं का अध्ययन करके उनकी प्राप्ति करना भी आवश्यक है। उनकी दृष्टि में बिना सत्य विद्याओं की प्राप्ति के केवल योगाभ्यास व ईश्वर का ध्यान वा साक्षात्कार करना अधूरा जीवन था। वह दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति में कृतकार्य वा सफल हुए थे। सब सत्य विद्याओं का संसार मे एकमात्र ग्रन्थ ‘चार वेद संहितायें’ हैं जिन्हें संसार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद के नाम से जानता है। यह चार मन्त्र संहितायें सृष्टि की आदि मे चार ऋषियों ‘अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा’ के पवित्र हृदयों में ईश्वर द्वारा स्थापित समस्त सम्भव सत्य ज्ञान है। महाभारत काल तक हमारे देश में सहस्रों ऋषि व विद्वान होते थे व परस्पर व्यवहार की भाषा संस्कृत होती थी जिस कारण वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थ लोगों को विदित होते थे। महाभारत काल के बाद विद्वानों व ऋषियों की निरन्तर कमी होती गई जिससे वेदों के अर्थ के अनर्थ होने लगे। वेदों के अर्थ के अनर्थ होने से अज्ञान व भ्रान्तियां उत्पन्न हुईं, इससे अज्ञानपूर्वक कार्य होने लगे और इसी के परिणाम से हिंसात्मक यज्ञ व मिथ्याचार की बातें उत्पन्न हुईं जो समय–समय पर अनेक मत–मतान्तरों की उत्पत्ति का कारण बनीं।
यह सर्वविदित है कि जहां अन्धकार होता है वहां अन्धकार दूर करने के लिए दीपक जलाना ही पड़ता है। दीपक कई प्रकार के हो सकते हैं। कोई कम प्रकाश देता है और कोई अधिक। इसी प्रकार के सभी मत-मतान्तर हैं जो दीपक के समान हैं जिन्होंने अपने अपने समय व बाद में भी अज्ञान के अन्धकार को कुछ-कुछ दूर करने का प्रयास किया है। अज्ञान को पूर्णतया नष्ट करने के लिए जिस पूर्ण प्रकाश, ज्ञान वा विद्या की आवश्यकता थी, वह मत-मतान्तरों के संस्थापकों व आचार्यों के पास नहीं थी और संसार के किसी भी मनुष्य के पास, वेदों वा ऋषि परम्परा के समाप्त होने के कारण, हो भी नहीं सकती। यह क्षमता वा योग्यता तो केवल सृष्टि की रचना करने वाले परम पिता परमेश्वर व उसके वेद ज्ञान में ही हुआ करती है। महर्षि दयानन्द को खोज करते हुए समस्त ज्ञान वा विद्याओं के स्रोत इन वेदों के सत्य अर्थों की कुंजी, अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति, गुरु विरजानन्द सरस्वती से प्राप्त हुई थी। वेदों के रहस्यों को जानने की इस कुंजी से दयानन्द जी ने सन् 1863 से 1883 के अपने वेद भाष्य व इतर वेद प्रचार कार्यों को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया। उन्होंने चार वेदों का संस्कृत व आर्यभाषा हिन्दी में भाष्य करते हुए लिखा भी है कि यदि ईश्वर की कृपा बनी रही और उनका वेद भाष्य का कार्य पूर्ण हो गया तो उस दिन देश देशान्तर में सर्वत्र ज्ञान के क्षेत्र में सूर्य का सा प्रकाश हो जायेगा कि जिसको मेटने, दृष्टि से ओझल करने व उसे स्वीकार न करने की स्थिति किसी मनुष्य वा मत–मतान्तर की नहीं होगी। इसे मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अज्ञानी व स्वार्थप्रिय लोगों को मनुष्य की भलाई का यह कार्य पसन्द नहीं आया और उन्होंने स्वामी दयानन्द को विष देकर उनके शरीर को 30 अक्तूबर, सन् 1883 को समाप्त कर दिया जिससे वेदों का सूर्य अस्त हो गया और हम उनके पूर्ण प्रकाश सं वंचित हो गये। वेदों के भाष्य का कार्य अपूर्ण रहने के अनेक कारण थे। महर्षि दयानन्द को अपने जीवन में योग्य लिपिकर और विद्वान नहीं मिले जो उनके बोले गये वचनों को ठीक-ठीक लिखते और उनके संस्कृत में लिखाये गये वचनों का सरल व सुबोध हिन्दी में अनुवाद करते। इसके अतिरिक्त दयानन्द जी को वेदों का भाष्य करने के साथ-साथ एक स्थान से दूसरे स्थानों पर मौखिक प्रचार, शास्त्रार्थ, शंका समाधान व आर्यसमाजों को स्थापित करने के लिए भी जाना पड़ता था जिसमें समय लगता था तथा जिसका प्रतिकूल प्रभाव वेद भाष्य के कार्य पर भी पड़ता था। महर्षि दयानन्द जी की मृत्यु से मनुष्य जाति का बहुत बड़ा अपकार हुआ अन्यथा हमें वेद भाष्य सहित अनेक नये ग्रन्थों सहित उनके अनेक विषयों के उपदेश सुनने व पढ़ने को मिल सकते थे जिससे तत्कालीन व बाद की मनुष्य जाति वंचित हो गयी। शोक वा महाशोक।
महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जितना कार्य किया वह वेद के सत्य अर्थों सहित धर्म का यथार्थ व सत्य स्वरूप प्रस्तुत करने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्याजनित बातों का प्रकाश करने में समर्थ है। यह सर्वविदित तथ्य है कि जितने मत-मतान्तर होंगे वह मनुष्यों को आपस में बाटेंगे व लड़ायेंगे, इतिहास व वर्तमानकाल इस बात का प्रमाण है, जिससे हिंसा आदि होती रहेगी और स्थाई शान्ति की आशा नहीं की जा सकती। इससे भी बड़ी बात यह है कि मत–मतान्तर का व्यक्ति योग विद्या व वैदिक ज्ञान से दूर होने के कारण अपनी पूर्ण बौद्धिक व आत्मिक उन्नति नहीं कर सकता। बौद्धिक उन्नति न होने से इसका कुप्रभाव मनुष्यों की शारीरिक उन्नति पर भी सीधा पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आजकल के वैज्ञानिक भी मनुष्य का संतुलित व स्वास्थ्यवर्धक भोजन क्या हो, निश्चित नहीं कर पाये। आज भी संसार के लोग भिन्न-भिन्न पशु, पक्षी, जलचर, थलचर व नभचर आदि प्राणियों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर अर्थात् हिंसा कर, उसे पकाकर खा जाते हैं। यह व्यवहार मनुष्य के प्राकृतिक स्वभाव व पवित्र व्यवहार के विपरीत और मनुष्य की शारीरिक, सामाजिक, आत्मिक सहित इस जन्म व परजन्म की उन्नति में बाधक है। इन कार्यों से मनुष्य योगाभ्यास, ईश्वर के ध्यान व उसकी प्राप्ति के कार्यों से दूर होकर अपने वर्तमान व भावी जन्म को बिगाड़ कर युगों-युगों तक के लिए अवनति वा दुःख की स्थिति को उत्पन्न करता है। आज संसार के लोग आधुनिक जीवन शैली के कारण नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर अल्पायु में ही मर जाते हैं। कुछ आतंकवाद का शिकार होकर तो कुछ दुर्घटनाओं में और अनेक स्वादिष्ट भोजन के सेवन व अनियमित दिनचर्या से अल्पायु मे ही चल बसते हैं। उनका परजन्म भी इस जन्म के शुभ वा अशुभ कर्मों का परिणाम होता है। अनुमान किया जा सकता है कि ऐसे लोग भोग योनि, निन्दित पशु, पक्षी, स्थावर आदि में ही जायेंगे। अशुभ कर्मों को करके वह स्वतन्त्र वा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते। पर जन्म में उन्नति तो तभी सम्भव थी जब कि वह अपने पिछले जन्मों के कर्मों का इस जन्म में भोग करने के साथ नये सत्कर्मों, ईश्वरोपासना, परोपकार, पीडि़तों की सेवा व सहायता आदि रूपी शुभ कर्मो की इतनी पूंजी एकत्रित करते कि ईश्वर से उन्हें सर्वोत्तम सुख मोक्ष की प्राप्ति होती। इस जन्म वा परजन्म में उन्नति की स्थिति तभी सम्भव है कि जब लोग महर्षि दयानन्द वा सत्य सनातन ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म वा वेद के मार्ग पर पूर्णतः चलें जैसे कि महर्षि दयानन्द व उनके शिष्य पं. गुरुदत्त विद्वार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम जी व स्वामी दर्शनानन्द जी आदि चले थे।
वैदिक धर्म ईश्वर प्रदत्त होने से पूर्ण सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित धर्म है। महर्षि दयानन्द वैदिक धर्म की तर्क व युक्ति पूर्वक विवेचना अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में की हुई है। अपनी विशेषताओं के कारण वेद ही विश्व के सभी मनुष्यों का श्रेष्ठतम् धर्म है। विश्व में वैदिक धर्म की स्थापना से सभी अपना जीवन सुख व शान्ति पूर्वक भोग सकते हैं और परजन्म में भी उन्नति वा मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। मनुष्य की आत्मा और जीवन की उन्नति करने का एक ही मार्ग है और वह है सुसंस्कार जो वेदाचरण वा सत्याचरण से मिलते हैं। वेदाचरण एवं सत्याचरण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हम विश्व के सभी मतों के आचार्यों व लोगों से संस्कृत पढ़कर वेदों की परीक्षा करने, सभी मत-मतान्तरों का अध्ययन कर सत्य व श्रेष्ठ को स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं। इसी में संसार के सभी लोगों का हित छिपा हुआ है। इसी के लिए महर्षि दयानन्द ने अपना पूरा जीवन समर्पित किया था और अकाल मृत्यु का वरण किया था। वर्तमान व परजन्म की उन्नति का वेद मार्ग के आचरण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख, मान्यवर ! स्वामी दयानंद सदा जगते हित चिंतन में लीन रहते थे। लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि विष से उनके प्राण ले लिये गये।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपका कथन यथार्थ एवं सत्य है। इतना कहना है कि महर्षि जो कार्य कर गएँ है उससे पूरे विषय में आध्यात्मिक व सामाजिक क्रांति लाइ जा सकती है। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि उनके ग्रन्ध इस विश्व में आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्रांति में साधन एवं सहायक हो सकते हैं।
मनमोहन भाई , जो महानगियानी होते हैं, वोह बहुत दूर की सोचते हैं लेकिन आम आदमी की सोच घर गृहस्थी तक ही सीमत रहती है और कर्म कांडों में ही कुइक आंसर ढूँढ़ते हैं , इस लिए बहुत कम लोग गियान की बातें समझ पाते हैं . एक बात और है कि जिस धर्म में कोई जनम लेता है वोह उसी तरह ढल जाता है . सीधी सी बात है, हालांकि मैं इतना धार्मिक विचारों का नहीं हूँ, कोई मुझे कह दे कि मैं किसी मस्जिद में जा कर नमाज पडूँ तो यह मेरे से नहीं होगा. यही वजह है कि हम सभी एक परकार के कट्टर हो जाते हैं और अपने धर्म को ही श्रेष्ट मानते हैं और दलीलें दे कर इस को सही साबत करने की कोशिश करते हैं, हर कोई अपने धर्म को सही मानता है और यही झगड़ों का कारण बनता है .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने जो कहा है वह सर्वथा व्यवहारिक है. सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक जो भी गुरु या शिष्य पैदा हुवे हैं वह सभी अल्पज्ञ थे इ लिए उनके दवारा दिए गए ज्ञान वा पुस्तकों में कमिया होना स्वाभाविक है। केवल ईश्वर का ज्ञान ही पूर्ण होता है। ईश्वर का ज्ञान वेद है जो उसने सृष्टि के आरम्भ में ऋषिओं को दिया था। अतः वेद एक मानक ग्रन्थ है परन्तु सभी मतों के लोग अपनी अपनी अविद्या और स्वार्थ के कारण इस तथ्य वा सिद्धांत को मानने को तयार नहीं है। सत्य को ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में प्रत्येक मनुष्य को सदा तत्पर रहना चाहिए। इससे सिद्धांत को मानते तो सभी हैं परन्तु यह किसी भी मत मतान्तर के अनुयायी के जीवन में चरितार्थ नहीं होता है। यही मुख्य समस्या है। इस सिद्धांत को यदि व्यवाहरिक रूप से सभी मान ले, तो यह संसार है जैसा कि एक परिवार वा एक समूह में कुछ कुछ होता है। सादर धन्यवाद।
प्रिय मनमोहन भाई जी, सत्य ज्ञान की खोज को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन जीने वाले महर्षि दयानंद जी धन्य हैं. एक सार्थक आलेख की प्रस्तुति के लिए आभार.
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। आपने जो कहा है वह ज्ञान व विवेक से पूर्ण कथन है। दुःख है कि आज के संसार में विवेकशील लोग बहुत ही कम है। संसार की अधिकांश समस्याओं का प्रमुख कारण ज्ञान व विवेक की कमी या या होना ही है। सादर।
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। आपने जो कहा है वह ज्ञान व विवेक से पूर्ण कथन है। दुःख है कि आज के संसार में विवेकशील लोग बहुत ही कम है। संसार की अधिकांश समस्याओं का प्रमुख कारण ज्ञान व विवेक की कमी या या होना ही है। सादर।