पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति की ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज भक्ति
ओ३म्
आर्यसमाज के भूले बिसरे विद्वान
आर्यसमाज की दूसरी पीढ़ी के प्रचारकों में अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी, तर्कपटु तथा वाग्मी पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति का नाम अन्यतम है। आर्यसमाज की 10 अप्रैल, सन् 1875 को स्थापना के कुछ वर्ष बाद आपका जन्म कोट अद्दे जिला मुजफ्फरगढ़ (पाकिस्तान) में हुआ था। आपका अध्ययन मुलतान (पाकिस्तान) तथा उसके बाद उन दिनों विद्या की नगरी काशी में हुआ। मुलतान में ही महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त व आर्ष प्रज्ञा के धनी वेदों के विश्व विख्यात विद्वान पं. गुरुदत्त विद्यार्थी की जन्म भूमि भी है। काशी में विद्या पूरी करके पण्डित लोकनाथ जी सन् 1915 में आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के उपदेशक बन गये। देश विभाजन से पूर्व आर्यसमाज की वैदिक शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों का आपका प्रचार क्षेत्र मुख्यतः पंजाब, सिन्ध, तथा उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेश रहा। आपने अपने जीवन में विभिन्न मतावलम्बियों से सैकड़ों शास्त्रार्थ किये। 14 अगस्त, सन् 1947 को देश विभाजन के बाद आप दिल्ली आ गये और यहां रहते हुए आर्यसमाज दीवान हाल को आपने अपनी प्रचार गतिविधियों का केन्द्र बनाया। सितम्बर सन् 1957 को आपने संसार से विदाई ली अर्थात् आप इस संसार को छोड़ गये।
आप बहुत अच्छे कवि भी थे। आर्यसमाज में यज्ञ के अनन्तर देश विदेश और यत्र-तत्र पौराणिकों में भी गाई जाने वाली यज्ञ प्रार्थना, ‘यज्ञ रूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए, वेद की बोलें ऋचायें सत्य को धारण करें, हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।’ के रचयिता आप ही हैं। यह गीत वा भजन इतना लोकप्रिय है कि आज यह करोड़ों आर्यसमाजियों एवं कुछ पौराणिकों की जिह्वा पर उपस्थित रहता है। कहीं यज्ञ हो उसके बाद इसका समूह ज्ञान होता है। यह एक प्रकार से यज्ञ की आरती बन गया है। देश विदेश के सभी आर्यसमाजों व आर्य परिवारों में तो यह प्रतिदिन गाया ही जाता है।
आपके जीवन की दूसरी प्रमुख घटना यह है कि आपने अमर आर्य शहीद सरदार भगतसिंह जी का यज्ञोपवीत संस्कार भगतसिंह जी के दादा सरदार अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह, माता विद्यावती एवं अन्य पारिवारिक जनों की उपस्थिति में कराया था। यह भी बता दें कि सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह महर्षि दयानन्द के कट्टर अनुयायी थे और प्रतिदिन हवन किया करते थे। भगत सिंह जी का पूरा परिवार ही आर्यसमाजी था। यह भी ज्ञातव्य है कि महर्षि दयानन्द को पिता व आर्यसमाज को माता मानने वाले लाला लाजपतराय जी पर अंग्रेजों द्वारा किए गये प्रबल लाठी प्रहार का बदला लेने के लिए ही सरदार भगतसिंह ने पुलिस आफीसर जान साण्डर्स को गोली मारी थी। इसके बाद वह अपने बाल कटा कर एक अंग्रेजी जीवन शैली के युवक के रूप में दुर्गाभाभी के साथ कलकत्ता गये थे और वहां की किसी अन्य संस्था में नहीं, अपितु आर्यसमाज कलकत्ता में ही गुप्तवास किया था। हमारा यह भी अनुमान है कि भगतसिंह जी को देशभक्ति के संस्कार एक ओर जहां अपने दादा, माता-पिता और चाचा से मिले वहीं उनके निर्माण में पण्डित लोकनाथ तर्कवाचस्पति, लाहौर के दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कालेज और वहां भाई परमानन्द सहित आर्य विचारधारा के आचार्यों व स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं की भी भूमिका थी। एक महत्वपूर्ण बात यह भी बता दें कि पण्डित लोकनाथ तर्कवाचस्पति के पौत्र राकेश शर्मा हैं जिन्होंने अमेरिका के चन्द्रयान में अन्तरिक्ष यात्री के रूप में चन्द्र पर अपने पैर रखे थे। यह विचार कर भी आर्यों को गौरव मिलता है कि भारत से महर्षि दयानन्द के एक भक्त का पौत्र प्रथम चन्द्रमा पर पहुंचा है।
आर्यसमाज के वयोवृद्ध शीर्षस्थ विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी” में पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति के विषय में लिखते हैं कि ‘आप मूलतः सिन्ध प्रान्त के निवासी थे, परन्तु आपका प्रचार क्षेत्र पंजाब रहा। आप आर्य प्रादेशिक सभा पंजाब के उपदेशक भी रहे। अद्वितीय व्याख्याता, तर्कनिष्णात शास्त्रार्थ महारथी तथा कर्मकाण्ड प्रेमी भावुक विद्वान् थे। आपने पौराणिकों तथा अन्य विधर्मी विद्यानों से अनेक शास्त्रार्थ किये। पौराणिक आस्थाओं पर इनके प्रहार बड़े तीखे एवं तिलमिला देने वाले होते थे। इन पंक्तियों के लेखक (डा. भवानीलाल भारतीय) ने पं. लोकनाथ जी को प्रसिद्ध पौराणिक विद्वान् पं. माधवाचार्य तथा पं. अखिलानन्द शर्मा से शास्त्रार्थ करते हुए नवम्बर, 1953 में डीडवाना (राजस्थान) में देखा था। (इस शास्त्रार्थ को 63 वर्ष हो गये। हमारा सौभाग्य है कि आज भी डा. भारतीय हमारे बीच विद्यमान है और गंगानगर में रहते हैं। हम उनके स्वस्था जीवन एवं दीर्घ आयु की ईश्वर से कामना करते हैं। ) पण्डित लोकनाथ जी का स्वाध्याय कितना गूढ़, शास्त्रार्थ शैली कितनी रोचक और प्रभावपूर्ण थी, यह देखते ही बनता था। उक्त शास्त्रार्थ में माधवाचार्य ने मृतक श्राद्ध को वैदिक तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को अवैदिक सिद्ध करना चाहा परन्तु पं. लोकनाथ जी के तर्क पूर्ण प्रश्नोत्तर से विपक्षी पण्डित के छक्के छूट गये। एक बार तो संस्कारविधि के श्राद्ध प्रकरण में उल्लिखित सव्य-अपसव्य प्रकरण के विषय में पं. माधवाचार्य के गलत बयानी करने पर पं. लोकनाथ जी ने उसे जिस प्रकार ललकार कर चुनौती दी, उससे पं. माधवाचार्य का चेहरा फक्क हो गया तथा उपस्थित जनता को पौराणिक मत की निर्बलता स्पष्ट रूप से मालूम हो गई।’
पं. लोकनाथ केवल शास्त्रार्थ समर के शूर-सेनापति ही नहीं थे अपितु उन्होंने आर्यजीवन पद्धति को अपने व्यक्तिगत जीवन में साकार रूप से ढाला था। अपने प्रवचनों में वे संध्या, स्वाध्याय, सत्संग, संस्कार आदि पंचसकारों के क्रियात्मक आचरण पर जोर देते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं था। पण्डित लोकनाथ जी ने ‘भक्त गीता’ पुस्तक लिखी जिसमें आर्यों के नित्य प्रति किये जाने वाले कर्मकाण्ड का संग्रह किया। ऋषि दयानन्द के प्रति उनमें प्रगाढ़ श्रद्धा व भक्ति थी। हनुमान चालीसा की तर्ज पर ‘ऋषिराज चालीसा’ पुस्तक लिखकर उन्होंने महर्षि दयानन्द को अपनी काव्यपूर्ण श्रद्धाजंलि भेंट की थी। ‘महर्षि महिमा’ संस्कृत तथा हिन्दी का आपका मिश्रित काव्य ग्रन्थ है। भक्त गीता और प्रभात गीत तथा प्रभु भक्ति स्तोत्र आपकी अन्य तीन पुस्तकें हैं। यह दुःख का विषय है कि इस समय आपकी कोई भी पुस्तक प्राप्य नहीं है। कुछ पुराने आर्य विद्वानों की निजी लाइब्रेरी में यह अवश्य हो सकती हैं परन्तु वर्तमान पीढ़ी उनकी पुस्तकों वा विचारों के लाभ से वंचित है। काश कि कोई विद्वान व प्रकाशक इन्हें प्रकाशित करने का साहस करे। पण्डित जी का एक शास्त्रार्थ पौराणिक विद्वानों से आर्यसमाज लाहौर छावनी में भी हुआ था।
हमें प्रयास करने पर भी पण्डित लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी का कोई चित्र प्राप्त नहीं हो सका। उनके चन्द्रयात्री पौत्र श्री राकेश शर्मा के अनेक चित्र उपलब्ध हैं, अतः हम लेख में उन्हीं का चित्र दे रहे हैं। पण्डित जी को आर्यसमाज ने प्रायः भुला दिया है। इसी कारण हमने उनका संक्षिप्त उपलब्ध परिचय इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया है। हम डा. भारतीय जी की सामग्री का उपयोग करने के लिए उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं। पाठक यदि इस लेख को पसन्द करते हैं तो इससे हमारा यह पुरुषार्थ सफल सिद्ध होगा। पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी को हमारी सश्रद्ध श्रद्धांजलि।
-मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा .भगत सिंह जी के बारे में पढ़ कर जानकारी मिली और चंदर्यान का जो लिखा कि सुआमी दया नन्द जी के भगत के पोते राकेश शर्मा के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। आपके शब्दों को पढ़कर प्रसन्नता हुई। महर्षि दयानन्द ने सन १८७५ में ही देश की आजादी / स्वराज्य आदि के बारे में बगावती शब्द लिख दिए थे। कांग्रेस की स्थापना आर्यसमाज की स्थापना के १० वर्ष बाद हुई। देश के सभी क्रन्तिकारी ऋषि दयानन्द के विचारों से प्रभावित थे। क्रांतिकारियों के गुरु पंडित श्यामजी कृष्ण वर्म्मा थे। वह महर्षि दयानन्द के भी साक्षात शिष्य थे। वह दयानन्द जी की प्रेरणा और सहयोग से ही लन्दन गए थे। उन्होंने ही वहां इंडिया हाउस की स्थापना की थी। गांधी जी के गुरु के गुरु महादेव रानडे भी महर्षि दयानन्द के शिष्य थे। इसी प्रकार शहीद भगत सिंह जी के दादा जी सरदार अर्जुन सिंह और उनका पूरा परिवार भी ऋषिदयनन्द जी का भक्त था. सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, यह यज्ञ प्रार्थना हमें बहुत प्रेरक लगती है. अंतिम पंक्ति ”नाथ करुणा रूप करुणा आपकी सब पर रहे.” पर हमारी दृष्टि अटक जाती है. इस पंक्ति से साक्षात प्रभु का वरद-हस्त शीश पर अनुभव होता है. एक सार्थक आलेख की प्रस्तुति के लिए आभार.
नमस्ते बहिन जी। आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। हमें इस प्रार्थना को जीवन में सैकड़ों बार गाया है। सभी बच्चों व मित्रो के परिवार में सभी को यह यज्ञ प्रार्थना याद है। मुझे यदा कदा मित्रों में यज्ञ भी कराने का अवसर मिलता है। सभी मिलकर यह प्रार्थना गाते है तो लगता है कि ईश्वर साक्षात सुन रहा है और स्वीकार कर रहा है। आपकी सभी बातो से सहमति है और पढ़कर आत्मिक आह्लाद हुआ है। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, यज्ञ करने-कराने का हमें भी बहुत अवसर मिला है. हमने दो नए स्कूलों की शुरुआत भी हवन से ही की थी. हमारी सत्संग-कीर्तन मंडली में भी अक्सर इस प्रार्थना का गायन होता रहता है.
नमस्ते आदरणीय बहिन जी। बहुमूल्य जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद। जानकारी वा विचार पढ़कर प्रसन्नता हुई। हवन में मनुष्य के जीवन में क्रन्तिकारी परिवर्तन करने की क्षमता है और मनुष्य इसके सत्यसरुप को जानकार वा इसका अनुष्ठान कर न केवल महापुरुष बन सकता है अपितु मोक्ष तक भी पहुँच सकता है। ईश्वर का प्रिय तो होता ही है। यज्ञ को सही विधि से करने का ज्ञान यज्ञ के कर्त्ता को प्राप्त करना चाहिए। आज कल बहुत से लोग अवैदिक विधि से भी यज्ञ करते हैं। उससे कितना पुण्य मिलता है या वह पाप की श्रेणी में आता है, यह चिंतनीय है। मध्यकाल में यज्ञ में पशुओं को काटकर आहुतियां दी जाती थी जिसका परिणाम ही हम आज अवैदिक मतों के रूप में भोग रहें हैं। आतंकवाद भी उसी अवैदिक कार्यों का एक परिणाम है। सादर।